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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, February 19, 2013

सरकार निकाले बदहाली से उत्तराखंडी सिनेमा को


-- सुरेश नौटियाल

वर्ष 1983 में जब 4 मई को पहली गढ़वाली फिल्म "जग्वाल" प्रदर्शित हुयी तब शायद किसी ने सोचा न होगा कि एक दिन यह फिल्म ऐतिहासिक बनेगी और उत्तराखंडी सिनेमा की नींव के तौर पर जानी जाएगी. यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि तब गढ़वाली फिल्म को उत्तराखंडी सिनेमा के किसी भी रूप में परिभाषित करने की संभावना नहीं के बराबर थी.  आंचलिक फिल्म्स की इस फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ (वास्तविक नाम पारेश्वर गौड़) को भी शायद इसका अंदाजा न रहा होगा. होसकता है कि उन्होंने "जग्वाल" के रूप में मात्र पहली गढ़वाली फिल्म बनाने का सपना देखा हो. याद है कि यह फिल्म सबसे पहले नई दिल्ली स्थित मावलंकर हॉल में दिखाई गयी थी. ऐसा इसलिए करना पड़ा था क्योंकि किसी रेगुलर सिनेमा हॉल का किराया देने के लिए  आंचलिक फिल्म्सकंपनी के पास या पराशर गौड़ के पास पैसे नहीं थे और कोई सिनेमा हॉल या फिल्म वितरक इसे अपने बूते रिलीज़ करने को तैयार नहीं था.

बहरहालमावलंकर हॉल पर भीड़ इतनी उमड़ पड़ती थी कि बस मत पूछिए. मैं फिल्म बनाने वालों से लेकर फिल्म में काम करने वाले कई लोगों को जानता था पर पहले कुछ दिन फिल्म के दर्शन नहीं हो पाएचूंकि फिल्म देखने वालों की संख्या बहुत ज्यादा और हॉल में सीटों की संख्या सीमित थी. खैरकुछ दिन बाद फिल्म देखी और पहली बार परदे पर फिल्म के पात्रों को गढ़वाली में संवाद करते हुए देखा. यह अपने आप में एक अदभुत अनुभव था. एक बारगी लगा कि सत्यजित राय से लेकर कुरोसावा तक सब फीके पड गए हैं और उनकी फिल्में भी "जग्वाल" के सामने कुछ नहीं हैं. ऐसा शायद इसलिए लगा होगा क्योंकि भीतर का मन ऐसी ही कोई फिल्म देखना चाहता होगा जो सत्यजित राय या कुरोसावा की फिल्मों को टक्कर दे. कुल मिलाकर लगा जैसे हमारा अर्थात पहाड़ के लोगों का भी कोई अस्तित्व है और हम भी इस देश के सचमुच में नागरिक हैं. न जाने क्यों सर ऊंचा सा हो गया था. पहाड़ी होने की हीन भावना तो कभी रही नहीं पर न जाने ऐसा क्यों लगा था मानों औरों के समान्तर आ गए हैं.
उत्तराखंड के हजारों-हजारों लोग दशकों-दशकों से दिल्ली और ऐसे ही अनेक शहरों में रामलीलाएं करते आ रहे थे लेकिन तब ऐसा कोई अहसास नहीं हुआ जो मात्र एक गढ़वाली फिल्म के बन जाने से हुआ. और हांयह अहसास केवल गढ़वाली लोगों को नहीं अपितु कुमांउनी लोगों को भी हुआ. संक्षेप में "जग्वाल'" के निर्माण को पहाड़ी या उत्तराखंडी पहचान और सांस्कृतिक अभिव्याक्ति के रूप में देखागया. औरयही अभिव्यक्ति कालान्तर में उत्तराखंड सिनेमा के रूप में प्रकट हुयी. दिल्ली से बाहर के अनेक शहरों से लोग दिल्ली केवल और केवल इस फिल्म को देखने आये थे और जब टिकट नहीं मिली तो पांच रुपये की टिकट ब्लैक में सौ रुपये में भी खरीदी. वैसे तब पांच रुपये की भी खूब औकात होती थी.

"जग्वाल" के बाद अनेक फिल्में गढ़वाली और कुछ कुमांउनी में बनीं. उनके स्तर के बारे में यहां चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह विषय दूसरा है. हम मूल रूप से चर्चा इस बात पर करेंगे कि गढ़वाली और कुमांउनी फिल्में और बाद में इन दोनों भाषाओँ की एल्बम क्यों और किस प्रकार उत्तराखंड सिनेमा और उत्तराखंडी एल्बम के तौर पर धीरे-धीरे स्थापित हुईं. असल में गढ़वाल और कुमाऊं दोनों जगह के बहुत से लोग ऐसे थे जो अपनी-अपनी पहचान में ज्यादा और उत्तराखंडी पहचान में कम विश्वास रखते थेलेकिन उत्तराखंड आन्दोलन और उत्तराखंडी पहचान का ऐसा दबाव था कि इन लोगों की एक नहीं चली और धीरे-धीरे ही सहीगढ़वाली और कुमांउनी सिनेमा उत्तराखंडी सिनेमा के रूप में अभिव्यक्ति पाने लगा. यह उत्तराखंडी पहचान की बड़ी जीत थी.

आज भले ही हमारे लोग गढ़वाली और कुमांउनी में फिलें बना रहे हैं लेकिन उनके दिमाग में बाज़ार के तौर पर पूरा उत्तराखंड है. फिल्म दोनों में से किसी भी एक भाषा में हो लेकिन संबोधन पूरे उत्तराखंडी समाज के लिए रहता है. कुछ फिल्मों में तो सीधे-सीधे लिखा होता है 'उत्तराखंडी फिल्म'.

और हांपिछले तीन-चार साल में यंग उत्तराखंड नामक नौजवान लोगों की सामाजिक संस्था ने यंगउत्तराखंड सिने अवार्ड्स की शुरुआत कर गढ़वाली- कुमांउनी के भेद को पूरी तरह समाप्त कर दिया है. अब लिहाजा इसी सन्दर्भ में पूरी बातचीत उत्तराखंडी सिनेमा पर रखी जाएगी. "जग्वाल" की पृष्ठभूमि में मंगलेश डबराल जी ने जब 1983 में "जनसत्ता" के रविवारी संस्करण के लिए मुझसे लेख लिखने को कहा था तब वास्तव में गढ़वाली सिनेमा पर लिखना चुनौती था क्योंकि सन्दर्भ के लिए कुछ भी नहीं था. बहरहाललेख लिखा और छपा भी. यह गढ़वाली सिनेमा पर पहला लेख भी था. बाद में "पर्वतवाणी" के लिए जब इसी बिषय पर लिखा तब कुछ आसानी थी. तब से लेकर अब तक गढ़वाली से लेकर कुमांउनी सिनेमा तक ने काफी कुछ सफ़र तय कर लिया है और आज इन दोनों की निजी पहचान कम और उत्तराखंडी पहचान ज्यादा है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस पहचान में मजबूती आयी है.

अब कुछ खट्टी-मीठी बातें उत्तराखंडी सिनेमा के बारे में. उत्तराखंडी जनता के एक वर्ग ने जहां फिल्मों को सिर-आंखों पर लियावहीं दूसरी और उत्तराखंड सिनेमा की आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाई. इसका कारण कमज़ोर ढांचे का होना रहा है. उत्साही प्रोडूसर पांच-सात लाख रुपये लगाकर उत्तराखंडी फिल्म बनाता है और फिल्म का विपणन करने वाली कंपनी शर्मनाक राशि देकर फिल्म के वितरणसम्बन्धी अधिकार खरीद लेती है. ऐसी स्थिति में कौन फिल्म बनाएगाफिल्म निर्माताओं का ऐसा भी कोई संगठन नहीं है जो फिल्म वितरण का काम देखे. कुल मिलाकर या तो फिल्म निर्माता को शोषक वितरक पर निर्भर रहना पड़ता है अथवा अपने स्तर पर ही वीसीडी बेचने का काम भी करना पड़ता है. इस पूरी ज़द्दोजहद में कलाकारसंगीतकारगीतकारछायाकारऔर अन्य सभी रचनाकार कहीं परदे के पीछे ही रह जाते हैं. उनके बारे में न तो कोई जानना चाहता है और न ही कोई बताने वाला होता है. अंत में यही कि फूक झोपड़ीदेख तमाशा!

लोगों में भी ऐसा कोई रुझान नहीं दिखाई देता कि वे उत्तराखंड सिनेमा को प्रोत्साहित करना चाहते हैं. पिछले दिनों यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड्स कार्यक्रम के दौरान फिल्म निर्माता और कलाकार राकेश गौड़ तथा कलाकार मदन डुकलान की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण थी कि यदि लोग हर महीने उत्तराखंडी फिल्मों की केवल एक वीसीडी खरीदने का निर्णय कर लें तो उत्तराखंड सिनेमा भी बच रहेगासंस्कृति भी बचेगी और उत्तराखंड की भाषाएं भी बच रहेंगी. उम्मीद करते हैं कि ऐसा हो पर यदि नहीं हुआ तो दूसरा क्या उपाय हो सकता है?

हमारी नज़र में दूसरा उपाय केवल और केवल उत्तराखंड और केंद्र सरकार की और से संस्थागतसमर्थन हो सकता है. अभी उत्तराखंड सिनेमा जिस दौर से गुज़र रहा हैउसमें सरकारी मदद के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता है. याद दिला दें कि इच्छाशक्ति हो तो सब कुछ हो सकता है. विश्व विख्यात फिल्म-मेकर सत्यजित राय को जब "पाथेर पांचाली" फिल्म बनानी थी तो वह पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यामंत्री के पास मदद के लिए गए और मुख्यमंत्री के कहने पर उन्हें वहां के परिवहन विभाग ने फिल्म बनाने के लिए पैसा दिया क्योंकि मुख्यामंत्री ने समझा  कि फिल्म पथ परिवहन के बारे में होगी.

जब यह हो सकता है तो उत्तराखंड में जहां हर व्यक्ति अपने आप को संस्कृति का वाहक समझता है वहां संस्कृति विभाग या फिल्म प्रभाग क्यों नहीं उत्तराखंड सिनेमा को आगे लाने के लिए सब्सिडी दे सकता हैहमारे  पास प्राकृतिक लोकेशंस हैंफिल्म की समझ रखने वाले लोग हैंकलाकार हैंआम आदमी के नज़रिए से चीजों को देखने वाले हैं -- अर्थात सब कुछ है हमारे पासपैसे के अलावा और पैसा सरकार दे सकती है. यह क्यों नहीं हो सकता कि सरकारी फिल्म विभाग अच्छी फिल्म स्क्रिप्ट्स का चयन स्वायत्त और प्रामाणिक संस्था का गठन कर करवाए और अपनी आर्थिक मदद से फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहन दे?

हमारे जन प्रतिनिधियों को भी इस मामले में आगे आना होगा और फिल्मों के माध्यम से वहाँ कि संस्कृतिकलाओंसंगीतलोक कलाओंऔर भाषाओँ को बचाने की कोशिश कर रहे चंद लोगों की सहायता करनी होगी. यदि ऐसा नहीं हुआ तो घाटे में उत्तराखंडी फिल्म उद्योग कितने दिन आगे चल सकता है? 16-एमएम से शुरू हुआ फिल्मों का सफ़र 35-एमएम या 70-एमएम तक जाने के बजाय डिजिटल के माध्यम से आज वीसीडी तक आकर ठिठक गया है.

सरकारी मदद न मिली तो क्या पता यह भी गायब हो जाये और तब आने वाली पीढियां किताबों में पढ़ें कि कभी उत्तराखंड सिनमा भी हुआ करता था. देश की अन्य भाषाओँ के समृद्ध सिनेमा से तो तुलना करने का विषय ही नहीं हैयह बात तो तब होगा जब खूब उत्तराखंडी फिल्में बनेंगी औरव्यावसायिक रूप से सफल भी रहेंगी. हमारा मानना है कि आज उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड भाषाओँ के सिनेमा को थोडा चलने लायक बना दे तो यह आने वाले समय में स्वयं दौड़ने लगेगा अपनी पूरी ताकत एवं सांस्कृतिक समृद्धि के साथ.

इस लेख के आरम्भ में कहा था कि "जग्वाल" फिल्म के रिलीज़ होने के बाद पहाड़ी समाज को लगा था कि वह भी और समाजों की बराबरी में आ गया है और बहुत कुछ कर सकता है. यही वह बात थी जिस चीज ने बाद में दर्ज़नों लोगों को गढ़वाली और कुमांउनी में खासतौर से फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया. इसे हम अपनी सांस्कृतिक चेतना के उच्चीकरण के रूप में भी देख सकते हैं. आज इस चेतना को और आगे ले जाकर देश के बाकी हिस्सों की सांस्कृतिक चेतना के समकक्ष लाने की आवश्यकता है. फिल्म उद्योग इस काम को तेजी के साथ करने में सक्षम है और उत्तराखंड सरकार को यह बात जाननी और पहचाननी चाहिए. अभी भी समय है. किसी ने ठीक ही कहा हैजब जागो तब सवेरा!

(श्रीनगर-गढवाल (उत्तराखंड) से प्रकाशित मासिक पत्रिका रीजनल रिपोर्टर के जनवरी 2013 अंक में प्रकाशित लेख)

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