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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, February 24, 2013

मि तैं अबि बि म्येरू गौं याद औणु च


सन १४१३ मा प्रवासी की पीड़ा
                                   मि तैं अबि बि म्येरू गौं याद औणु च
चबोड़्या-चखन्यौर्या: भीष्म कुकरेती
(s =आधी अ )
                                       सन १४१३ जसपुर, ढांगू , सलाण, पौड़ी गढ़वाळ

भाना शिल्पकार- क्या गुरुप्रसाद कुकरेती जी! आज तुम द्वी झण इन लगणा छंवां जन बुल्यां भौत दुख्यर छंवां। क्या बात च ? क्वी बड़ी बिथा-बीमारि?

गुरुप्रसाद कुकरेती- नै बिमारि सुमारि त कुछ नी पण बस सुदि?
स्यमुड़ शिल्पकार- नाति नतणा त ठीक छन बामण जी?जू तुम द्वी झण इथगा गमगीन दिखेणा छंवां?
गुरुप्रसाद कुकरेती- ओहो त्वि बि अपण ठुल्ला भैइ जनों एकि सवाल पुछणु छे बल हम द्वी झण उदास किलै छंवां । जन बुल्यां त्वै नि पता बल हमर नाति तुम दुयुंक नात्युं तैं लेकि भद्वाड़ खणणो भटिंडो डांड जयुं च।

भाना शिल्पकार- अजि हम ह्वै खसिया अर तुम ह्वे बामण त हम तै क्या पता तुम द्वी झण इथगा उदास किलै छंवां? उन त तुमर नौनु मूर्ति जी म्यार नौनु तै लेकि कठूड़s सारी दिखणो जयां छन तो वो बि ठीकि छन फिर तुम आज ..?
गुरुप्रसाद कुकरेती- आज इ वो दिन च जब हम द्वि झण इना जन आणो अपण मातृ-भूमि छोड़िक पैटी छा।
स्यमुड़ शिल्पकार- बामण जी! या मातृ-भूमि क्या होंदि? अर तुमर मातृ-भूमि कख छे?

गुरुप्रसाद कुकरेती- वो खस्या! त्वे तैं पिछ्ला चालीस पचास सालों से मीन कथगा दें बथै आल धौं कि मेरि मातृभूमि विन्ध्याचल पर्वत से तौळ दक्खण जिना च अर मातृभूमि वांखण बुलदन जख जनम ह्वावो-जख बचपन गुजरो।
स्यमुड़ शिल्पकार- अब हम तै क्या पता कि क्या क्या हूंद। तुमि इ हम तैं बथौदा बल हम त इखाक बासिन्दा छंवां अर हम खसिया छंवां। ये ल्यावो सि शेर सिंग नेगी जी बि ऐ गेन। नेगी जी! आज बामण जी उदास छन।
शेर सिंह नेगी- तुम खस्योंक त यादगार इ नि रौंदी। मि तबि त बामण जीम औ।
भाना शिल्पकार- तुम बि त खस्या छंवां

शेर सिंह नेगी -हाँ पण हम राजपूत छंवां। बामण जी यु मौसम आंद अर तुम पर मुर्दानि छाण बिसे जांद?
गुरुप्रसाद कुकरेती- हां शेर सिंह ! कुज्याण किलै धौं ? यु मौसम आंदो अर हम दुयुं तैं अपण दक्खण देस की खुद लगण मिसे जांद।
स्यमुड़ शिल्पकार- मेरि समज मा नि आंद बल तुमन इखि हम शिल्पकारों से इथगा बड़ी जमीन कृषि लैक बणवाइ। तुमर इखि बच्चा ह्वेन, नाति -नतणा ह्वेन अर अब त नात्युं बि बच्चा हूण वळ छन फिर बि तुम अपण बचपनै धरती बाबत खुद्यान्दा?
शेर सिंह नेगी - ओहो! तुम तै क्या पता मातृभूमि विछोह क्या हूंद? मि तै पूछो ना कि मातृभूमि बिछोह क्या हूंद। राजाको आदेस से मी बि श्रीनगर छोड़िक गुरु प्रसाद जीक सेवा करणों दगड़मा औं , इख म्यार बि झड़नाति ह्वे गेन पण आज तलक मि श्रीनगरो अलकनंदा छाल नि बिसरूं। अहा अलकनंदा छालो याद आंदो !

गुरुप्रसाद कुकरेती- हां हम द्वि पति-पत्नीन पलायन सुख पाणों करि छौ . श्रीनगरो राजा बदौलत मि तै सरा ढांगू की या जमान मील, शेर सिंह नेगी मील, तुम द्वी भै भाना अर स्यमुड़ शिल्पकार मिलेन। एक तरां से मि इखाक राजा इ छौं। पण सोना का सिंघासन मिलणो पश्चात बि कम नजीलो रूखी सूखी मातृभूमि बिसरण से बि नि बिसर्यांद। मातृभूमि याद हर समौ हृदय मा इ रौंदी। उख मेरो देसम हम सबि भायों कुण इथगा जमीन अर मान्त्रिकी-तांत्रिकी की जजमानी नि छे कि हम सब्युंकुण एक मैना को खाणों ह्वे जावो। यांक बान मि तैं मय पत्नी पलायन कौरिक गढ़वाळ देस आण पोड़ इख ढांगू को मि एकमात्र कब्जादार छौं। ढांगू को मि एकमात्र मालिक छौं। मीन कुळै-तूण- बांजौ लकड़ी से मकान बणवैन पण अबि बि नारियल-सुपारी को वृक्ष तै मि सर्वश्रेष्ठ वृक्ष माणदो किलैकि मीन बचपन मा यी वृक्ष देखि छौ।
शेर सिंह नेगी- हाँ कुकरेती जी या बात सही च मि अबि बि श्रीनगर नि बिसरि सकुद।

गुरु प्रसाद कुकरेती - मेरि चार बीसी से बिंडी उमर ह्वे गे पण इच्छा अबि बि च बल उख देस जौं।
स्यमुड़ शिल्पकार- त जावो ना अपणी इच्छा पूरी करि द्यावो। हम ढांगू का आठ दस खस्या ड्वाला-पालकीम तुम तै बिठैक पौन्चे औंला।
शेर सिंह नेगी -पलायन को एक रूणों या बि च प्रवासी मातृभूमि की यादम रोइ त सकुद च पण घरबौडै नि कर सकुद। प्रवासी भविष्य को सुपिन अवस्य दिखुद पण भूतकाल वैको पीछा नि छोड़दु। प्रवासी सुखद भविष्य को बान वर्तमान मा भूतकाल मा ही जीणु रौंदु।
गुर प्रसाद कुकरेती - पलायन की आग ही इन होंदि। पलायन की आग भोजन बि दींदी अर याहि आग तड़फ बि देंदी।
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Copyright@ Bhishma Kukreti 25 /2/2013

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