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Sunday, May 13, 2018

ब्रिटिश काल में हरिद्वार कुम्भ मेला प्रबंधन

( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- ) 
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )-81  
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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -   81               
(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--184      उत्तराखंड में पर्यटन , मेडिकल पर्यटन  आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -184

    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन  बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
    देखा जाय तो प्राचीन साहित्य या अभिलेखों में कुम्भ वर्णन नहीं है।  स्कन्द पुराण में कौन से स्थान में कब कुम्भ मेला या माघ मेला होगा का वर्णन मिलता है।  ऐसा लगता है हरिद्वार कुम्भ मेला शुरू होने के पश्चात ही अनुरकरण सिद्धांत के अनुसा प्रयाग , उज्जैन आदि में कुम्भ मेला शुरू हुआ। 
      हरिद्वार में मेला का वर्णन हर्ष वर्धन काल में चीनी यात्री हुयेन सांग के यात्रा वर्णन में मिलता है।  यह माघ मेला था या कुम्भ निश्चित नहीं कहा जा सकता है। तुलसीदास ने भी रामचरित मानस (बालकाण्ड 43 ) में माघ मेले का उल्लेख किया है प्रयाग के कुम्भ मेले का नहीं।   मुगल कालीन बादशाहों ने भी प्रयाग  की महत्ता का सम्मान किया और कहा जाता है कि औरंगजेब ने कुछ गाँव दिए थे। ( जे एस  मिश्रा , महाकुम्भ )  
 ऐसा लगता है कि मुगल काल में कुम्भ मेला प्रबंधन नागा अखाड़ों के हाथ में था और सिख व नागाओं की 1796 की लड़ाई तो इतिहास प्रसिद्ध है। 
     1804 का हरिद्वार कुम्भ मेला - 1804 में हरिद्वार मराठा शासन के अंतर्गत था।  मराठा परिवहन माध्यमों पर कर लेते थे किन्तु कुम्भ या अन्य मेलों का प्रबंधन अखाडाओं पर ही छोड़ देते थे। अखाड़ा यात्रियों से कर आदि लेते थे , न्याय भी करते थे व अन्य प्रबंध भी करते थे।  
   ब्रिटिश राज के प्रशाशकों के लिए कुम्भ मेला प्रबंधन केवल प्रशाशनिक प्रक्रिया न थी अपितु एक भय  स्रोत्र भी था।  सारे भारत से बिना किसी प्रचार प्रसार व सुविधाओं के लोग जुड़ते थे और फिर बद्रीनाथ आदि की यात्रा भी करते थे।  कुम्भ मेला अनेकता का प्रतीक न होकर वास्तव में केवल एकता का ही प्रतीक  था जो ब्रिटिश राज के लिए खतरा भी हो सकता था।  ईस्ट इण्डिया कम्पनी व बाद में ब्रिटिश राज के लिए सबसे बड़ी समस्या अखाडाओं के प्रभुत्व भी था। आज भी कुम्भ में धार्मिक अखाड़ेबाजी ही नहीं होती अपितु राजनैतिक अखाड़ेबाजी भी होती है।  
1808 का मेला - ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अधिक सैनिकों का प्रबंध किया जिससे 1796 वाली मार काट की पंरावृति न हो। 
1814 का अर्ध कुम्भ - इस अर्ध कुम्भ में सरडाना बेगम समृ के साथ आये मिसनरी चेमबरलीन ने भषण दिए जो सरकार को पसंद नहीं आये और दबाब में बेगम समृ को चेमबरलीन को हटाना पड़ा। 
1820 कुम्भ में भगदड़ मच गयी थी व 430 यात्रियों की मृत्यु हुयी थी।  इसके उपरान्त प्रशासन ने सड़कों  व पुलों का निर्माणही नहीं करवायाअपितु घाटों का जीर्णोद्धार भी किया जिसकी जनता ने प्रशंसा की।  
            शौचालय व बीमारियों की रोकथाम प्रबंध 
ब्रिटिश प्रशासन के लिए कुम्भ मेला प्रबंधन में मानव प्रबंधन कठिन न था किन्तु छुवाछुत की बीमारी जैसे प्लेग व हैजा रोकथाम सबसे कठिन समस्या थी।  , हैजा केवल हरिद्वार तक सीमित नहीं रहता था अपितु यात्रियों द्वारा गढ़वाल-कुमाऊं  तक भी पंहुच जाता था। हैजा से यात्रियों की मृत्यु के आंकड़े इस प्रकार हैं - (हेनरी वॉटर बेलो , 1885 द हिस्ट्री ऑफ़ कॉलरा इन इंडिया 1867 -1881 व दासगुप्ता ए नोट्स ऑन कॉलरा इन यूनाटेड प्रोविन्स व बनर्जी - वही रिपोर्ट )
वर्ष ------मेला ---- यात्री मृत्यु 
1879 -----कुम्भ ------35892 
1885 -----अर्ध कुम्भ ---63457 
1891 -------कुम्भ ------1690 13 
1921 -------अर्ध कुम्भ ----149 667 
1933 ---अर्ध कुम्भ ---1915 
1945 -----अर्ध कुम्भ -----77345 
  हर कुम्भ या अर्ध कुम्भ में ब्रिटिश सरकार कुछ न कुछ सुधार करती थी किन्तु 1891 व 1921 के कुम्भ भयानक ही सिद्ध हुए -
हरिद्वार कुम्भ का मुख्य प्रशाशक सहारनपुर जिले का जिलाधिकारी होता था। प्रशासन कभी कभी बीमार यात्रियों को हरिद्वार छोड़ने की आज्ञा भी देते  थे व कई बार अन्य स्थानों से यात्रियों को हरिद्वार आने से रोका जाता था।  कभी कभी हरिद्वार स्टेशन से ही यात्रियों को वापिस भेजा जाता था।  हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक गाँवों में जागरण कार्य किया जाता था. 
यद्यपि वालदिमोर हॉफकिन ने हैजा टीके का आविष्कार कर लिया था तथापि ब्रिटिश प्रशासन जनता के धार्मिक प्रतिरोध व राजनैतिक कारणों  (जैसे बाल गंगाधर तिलक सरीखे टीका विरोधी थे ) से जबरदस्ती टीकाकरण के सलाह को नहीं मान रहा था।  धीरे धीरे टीकारण आम जनता में प्रचारित हुआ व जनता की समझ में आ गया कि टीका लाभदायी है तो जनता टीकीकरण समर्थक हो गयी।  मेले में टीकाकरण का दस्तूर शायद सन 1960 तक बदस्तूर चलता रहा।  
  ब्रिटिश अधिकारियों ने अनाज विक्री पर भी ध्यान दिया कि जनता को भोज्य सामग्री उचित दामों पर मिले। 
   ब्रिटिश शासन ने कुम्भ मेला प्रबंधन में सफाई -शौचालय पर ध्यान दिया व चिकत्सालयों का प्रबंध भी किया।  पुलिस व अन्य बल प्रबंधन से अपराधियों पर लगाम लगाई गयी।  रेल व बस आने से परिहवन व्यवस्था में तेजी आयी तो नए नए संचार माध्यम जैसे टेलीफोन , पुलिस टेली संचार व्यवस्था , तार , डाकघरों का भी उपयोग कुम्भ मेले में होने लगा।  उद्घोषणाओं के प्रयोग से यात्रियों को नई सुविधा मिलीं। हिन्दू धर्म के प्रचारक व अन्य धर्मों के प्रचारक भी हरिद्वार पंहुचते थे तो प्रशासन को ऐसी संथाओं का भी संभालना होता था। हिन्दू महासभा की स्थापना  भी हरिद्वार कुम्भ अप्रैल 1915 में ही हुआ।
  कुम्भ मेले अवसर पर राजा महाराजा व उनका लाव लश्कर और अन्य विशिष्ठ व्यक्ति भी हरिद्वार पंहुचते थे प्रशासन को उनका विशेष प्रबंधन भी करना होता था। (मिश्रा , वही )

Copyright @ Bhishma Kukreti  22/4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना शैलवाणी (150  अंकों में ) कोटद्वार गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी 
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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