Place of Panduwala, LalDhang in Ancient History of Haridwar, History Bijnor, Saharanpur History
Ancient History of Haridwar, History Bijnor, Saharanpur History Part -201
Ancient History of Haridwar, History Bijnor, Saharanpur History Part -201
हरिद्वार इतिहास , बिजनौर इतिहास , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 201
इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
पांडुवाला पुरातत्व अन्वेषण का श्रेय इतिहास खोजी डा शिव प्रसाद को जाता है (उत्तराखंड इतिहास भाग 3 पृष्ठ 276 -277 ।
पांडुवाला लालढांग के पश्चिम में कोटद्वार -हरिद्वार मार्ग पर स्थित है। लालढांग हरिद्वार जनपद का बहादुराबाद तहसील का भाग है जो हरिद्वार से 19 . 4 किलोमीटर पूर्व की दूरी पर है और कोटद्वार से पश्चिम की और 27 किलोमीटर दूरी पर है। पांडुवाला बिजनौर-पौड़ी गढ़वाल सीमा पर स्थित है।
डा डबराल ने सूचना इस प्रकार दी -
" पांडुवाला सुरक्षित वन में दूर दूर तक प्राचीन वस्तियों के खंडहर फैले हैं। (काल 250 -350 ई ) शीलवर्मन काल में पांडुवाला एक समृद्ध नगर था। नगर को पांडुवाला स्रोत्र या रवासन नदी से जल प्राप्त होता था। तालाब तट पर लाल ईंटों की पक्के घात बने थे। तालाब से एक नहर निकाली गयी थी। शायद गंदे पानी निकास हेतु बनाई गयीं थीं या सिंचाई हेतु। संभवतः तालाब के किनारे छोटे मोठे मंदिर थे।
नगर में मुख्य मंदिर शिव मंदिर था। मंदिर में लाल शिला की लिंगोद्भव मूर्ति थी। मूर्ति मथुरा काल की सुंदर मूर्ति थी (कुषाण काल ). संभवतः कुषाण युग के बाद भी मथुरा कला नष्ट नहीं हुयी थी। इस मूर्ति को उठाकर पांडुवाला मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया है। अन्य मंदिरों की छोटी मूर्तियां नजीबाबाद मंदिर में प्रतिष्ठित की गयी किन्तु ये मूर्तियां आठवीं सदी के बाद की हैं।
जहां आजकल बणगूजरों की बस्ती हैं वहां कभी नगर का विशिष्ठ भाग रहा होगा। यहां यत्र तत्र कटी हुईं शिलायें पड़ी हैं। इन ईंटों का आकार व प्रकार वीरभद्र में मिले अवशेषों से मिलती हैं। सौ वर्ष पूर्व यहां कई मूर्तियां व चित्रित शिलायें बिखरी थीं जिन्हे मूर्ति चोर ले गए हैं। "
स्तूप
पांडुवाला में एक वृहद बौद्ध स्तूप था। डा डबराल ने लिखा (उपरोक्त संदर्भ ) इस स्तूप के ऊपर छह -बारह फिट तक मिटटी पड़ी है। मैं इस स्तूप देखने गर्मियों में 1968 में गया था। पांडुवाला स्रोत्र के पानी ने स्तूप को बीच से काट डाला है। दीवारों के कुछ भाग दिखाई पड़ते हैं। किन्तु सुरक्षा न होने से बजरी आदि से ढक गए हैं।
अब भी स्रोत्र की तलहटी में दोनों और दूर दूर तक मृतिका पात्रों की भरमार है। सावधानी से खोदने पर पात्र पूरे निकल आते हैं।
डा डबराल को खुदाई बाद कुछ् मृतिका पात्र मिले थे।
दीपक - छोटे पात्र आज केदीपकों जैसे थे जो छोटी छोटी सामग्री रखने हेतु रही होंगीं।
कटोरियाँ - लंबोतरी चपटी व रेखाओं से चित्रित कटोरियाँ तरल भोज्य पदार्थ खाने हेतु उपयोग होती थीं
थालियां -थालियां गोल थीं व मध्य में एक गोल आकृति अंकित रहती थी जो द्योतक रहा होगा। कुछ थालिओं के मध्य में समांतर रेखाएं चित्रित है यह भी स्तूप का द्योतक होंगे।
कुछ पात्रों के गले के नीचे कांच मिले जो घिसाई का द्योतक हैं। कुछ पात्रों में गले के निचे लेप किया गया है। ये पात्र लाल रंग के हैं। अनगिनित आकार की कुंडियां , छातियां मटकियां , मटके भी डा डबराल को मिले थे।
कुछ मृतिकाओं में अस्थि रसायन मिले।
एक पात्र के अध्ययन में एक टूटी वाले मृतिका भांड को विशेषज्ञ राय कृष्ण दास ने कुषाण युगीन करार दिया।
फुरर ने प्राचीन पांडुवाला की पहचान ब्रह्मपुर से की।
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History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur to be continued Part --
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास to be continued -भाग -
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