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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, October 10, 2016

हिंदी के विद्वानों जैसे डा उनियाल , डा श्रीराम शर्मा द्वारा गढ़वाली के साथ ठगी /छद्म

हिंदी   के विद्वानों  जैसे डा  उनियाल , डा श्रीराम  शर्मा  द्वारा गढ़वाली के साथ ठगी /छद्म 
  अभी मैंने एक विषय गढवाली साहित्यकारों ! कृपया गढवाली को हिंदी किछोटी बहिन बोलना बंद कीजिये . गढवाली का हिंदी से रिश्ता ही नही चाहिए' पर  पोस्ट  किया  तो कुछ लोगों की प्रतिक्रिया  से  ऐसा  लगा जैसे  मैं हिंदी विरोधी   हूँ और  गढ़वाली को  यूएनओ की भाषा घोसित  कर रहा हूँ  
खैर  अब मैं आता हूँ किस तरह हिंदी के वायसराय /अय्यार /जासूस गढ़वाली भाषा के साथ छद्म करते हैं ठगी करते हैं -
१- बनारस -इलाहाबाद के हिंदी के ठेकेदारों  छद्म --- जब मैं उत्तराखण्ड में पड़ता था तो स्कूल कॉलेज में  ब्रज , अवधी , मैथली , भोजपुरी आदि की कविताएं हिंदी पाठ्यक्रम में थीं किन्तु गढ़वाली , कुमाउँनी की ही  नही गुमानी पन्त, बर्तवाल , मौलाराम  का कहीं नाम ही नही था  अब पता नही। 
२- चलो बनारस -इलाहाबाद के तो गैर गढ़वाली , गैर कुमाउँनी है उन्हें क्या कहा जाय ?
किन्तु जब अपने ही गढ़वाली भाषा /साहित्य में PhD करे और गढ़वाली को हिंदी में समाहित करने की बात करे तो बुरा लगना ही है। 
डा राजेश्वर उनियाल  ने उत्तराखण्ड लोक साहित्य में  PhD की शायद सागर वि  . वि  . से।  डा विहारी लाल जालन्धरी सम्पादित।'संकल्प'  पत्रिका (वर्ष १९ अंक ४ , पृष्ठ २५ से २९ तक ) में उनका एक लेख है ' उत्तराखण्डी लोक साहित्य संरक्षण '. इसी तरह उनके कुछ लेख शैलवाणी  कोटद्वार से भी प्रकाशित हुए हैं 
शीर्षक 'उत्तराखण्डी लोक साहित्य संरक्षण ' से साफ़ पता लगता है कि डा राजेश्वर गढ़वाली , कुमाउँनी , जौनसारी , रवांल्टी , जौनपुरी , भोटिया या जौहरी (मल्हास ) लोक साहित्य को कैसे बचाया जाय पर हमे सीख देंगे जिससे हम गढ़वाली , कुमाउँनी , जौनसारी , रवांल्टी , जौनपुरी , भोटिया या जौहरी (मल्हास ) को बचा सकें संरक्षित कर सकें।  किन्तु बनारस -इलाहाबाद के हिंदी के ठेकेदारों के नवअवतार का खेल/रहस्य /प्रपंच  अंत में खुला जब उपसंहार में स्वनामधन्य डा उनियाल ने लिखा -
'जिस प्रकार गढ़वाल कुमाऊं से होने वाली गंगा -जमुना नदिया उत्तराखण्ड के प्रायः समस्त अंचलों की छोटी मोटी  नदियां नहरों को अपने में 'समाहित' करती हुयी प्रयाग के संगम में होते हुए गंगासागर तक इस धरती माता को जलनिधि से  पल्लवित पुष्पित करती है ठीक उसी प्रकार से उत्तरांचल  की वादियों से निकलकर गढ़वाली -कुमाउँनी का लोकसाहित्य हिंदी की समस्त बोलियों से सम्मिश्रित होकर हिंदी  के संगम में 'समाहित ' होते हुए एक समृद्ध , सम्पन व विकसित संस्कृति के निर्माण में अनुपम योगदान दे सकेगा " 
अब आप ही बताईये डा उनियाल 'उत्तराखण्डी लोक साहित्य संरक्षण  लेख में  गढ़वाली , कुमाउँनी , जौनसारी , रवांल्टी , जौनपुरी , भोटिया या जौहरी (मल्हास ) लोक साहित्य संरक्षण की बात कर रहे हैं कि  हिंदी की समस्त बोलियों से सम्मिश्रित होकर हिंदी  के संगम में 'समाहित होने की बात आकर रहे हैं ? 
यह एक उदाहरण है हिंदी के ठेकेदारों का छद्म रूप ! 

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