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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Wednesday, November 14, 2012

दिवाली तब और अब

संस्कृति कन बदलदी पर एक छ्वटो आलेख

दिवळ छिल्लुं बगवाळ (दिवळि) से चीनी लड्यु तक कि बग्वाळ (दिवळि) दिवाली तब और अब
                                    भीष्म कुकरेती

गढ़वाळम तीन दिनुं दिवळि होंदी - चौदस की छवटि बग्वाळ, औंसी बड़ी बग्वाळ अर गोधन . जु छवटि बग्वाळ नि मनै सकदन वो इ गोधन मनौंदन जन कि मल्ला ढांगू का जसपुर-ग्वीलक कुकरेती अर जखमोला .

दिखे जावो त पुराण लिख्वार (इतियासकार ) यां पर चुप छन कि गढ़वाळम बग्वाळ की पवाण (शुरुवात ) कब बिटेन लग . म्यार दिखण से त बगवाळ (दिवळि) नौविं सदी या दसवीं सदि बिटे शुरू ह्वे होलि जब पंवार बंशी अर बामणु मा नौटियाल लोग गढवालम बसि होला। नौटियाल जात इ अपण दगुड़ संस्कृत लैन अर मौलिक गढ़वळि पर संस्कृतौ छोप (असर ) लगण शुरू ह्वे होलु। इखम द्वी राय नि ह्वे सकुद बल नौटियाल अर पंवार बंशी इ बगवाळ (दिवळि) लै होला निथर पैथरौ समौ मा बगवाळ (दिवळि) शुरू ह्वे होलि . शंकराचार्य, रावालुं , या नंबूर्युं बगवाळ (दिवळि) से क्वी लीण दीण नि रै होलु किलै दक्षिण भारतम अबि बि बगवाळ (दिवळि) उथगा महत्व नी च जथगा उत्तर भारतम च .

जख तलक ढांगू उदयपुर क्षेत्र कु सवाल च इख कुकरेत्युं बसण बादि (तेरवी सदि न्याड़ -ध्वार ) बगवाळ (दिवळि) शुरू ह्वे होलि (इना कुकरेती बामणु मा सबसे पुराणि जात च )

मै लगद कुकरेत्युं सबसे पुराणों गौं जसपुरम जब बगवाळ (दिवळि) शुरू ह्वे होलि त झुपड़ा मा एक द्वू रै होलु अर बकै दिवळ छिल्लुं जळै बगवाळ (दिवळि) मनाये गे होलि . ह्वे सकुद च कि बति कबासलौ रै हूंदी होलि . लोक कथा त या बुलद बल कुकरेत्युं दगड़ इ शिल्पकार ल्वार बसी गे छया त कढै गड़णै समस्या नि रै होलि बल्कणम समस्या लोखरै रै होलि . त या बात बरोबर च बल तेरवीं सदि से भौत अग्वाडी तलक जसपुरम बगवाळ (दिवळि)म स्वाळ पक्वड़ नि बणदा रै होला बल्कणम ढुंगळ इ बणदा रै होला . ठीक च कुकरेत्युंन ढांगू मा हथनूड़ कुठार गौं बसै आल छौ जख माटौ भांड बणदा छया मतबल द्यु बि बणदा छया , लया -राई तेल बि छौ पण कपास की उपलब्धता सोना जन छे त दिवळ छिलुं से हि दिवळि मनाये जांदी रै होलि . असल मा अंग्रेजूं राज बादि रुपया, लोखर, कपास मा बढ़ोतरी ह्वे त तबि द्वू ,स्वाळ -पक्वडुं प्रचलन बढ़ी ह्वे होलु .

गढ़वाळम गुड़ मिलण आज बि सौंगु नी च त गढ़वाळम बग्वाळम मिठे प्रचलन नाको बरोबर इ राई .
भैर एक से बिंडी द्यु जळाणो प्रचलन बि मातबरी बढ़णो दगड़ बढ़ .सन साठ कु बाद इ द्वू जळाणो प्रचलन बढ़ .
पठाखौं , फूलझड़ी जळाणो, मूमबती जळाणो प्रचलन बि सन साठो बाद इ जादा ह्वे।

अब त द्यूं जगा चीनम बण्या लड़ी जळाणो, पठाकों क प्रचलन खूब बढ़ी गे पण गढ़वाळम एक बात ज्वा नौटियालो -पंवारों दगड़ शुरू ह्वे होलि वा संस्कृति अबि बि उन्याकि ऊनि च अर वा च गौड़ बछरो सींग पर तेल लगाण अर गोरुं तै पींडू खलाण।
भौतिक चीजूं आण से हम नया नया चीज इस्तेमाल करदवां पण खुसी , पुऴयाट का जो भाव मनुष्य का साथ इ ऐ छया वो उन्याकि उन छन

Copyright@ Bhishma Kukreti 13/11/2012

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