बुरुंश
सार जंगल में त्वि ज केन्हाँ रे केन्हाँ
फुलन छै बुरुंश! जंगल जनि जलि जन
सल्ल छ , द्यार छ , पइं, अंयार च
सबनाक फांगन में पुंगनक भारछ,
पै त्वि में दिलैकि आग,त्विमें छ ज्वानिक फाग
रगन में नई ल्वे छ प्यारक खुमारै छ
सारि दुनी में मेरी सू ज , ल्वे क्वे न्हाँ
मेरी सू कैं रे त्योर फूल जैन अत्ती भां
काफल , कुसम्यारु छ , आरू छ , अखोड़ छ
हिसालू-किनमोड़ ट पिहल सुनुक तोड़ छ
पै त्वि में जीवन छ , मस्ती छ , पागलपन छ ,
फूलि बुरुंश ! त्योर जंगल में को जोड़ छ ?
सार जंगल में त्वि ज केन्हाँ रे केन्हाँ
मेरी सू कें रे त्योर फूलनक्म' सुहाँ
मै सुमित्रा नन्दन पंत जी की इस कविता के कवित्व पर काव्यात्मक टिपण्णी लायक हूं भी नहीं. किन्तु मझे इस कविता ने किसी और कारणों से भी आकर्षित किया और वह है पंत जी द्वारा कुमाउंनी भाषा के व्याकरण को पूरा सम्मान देना.
आधुनिक गढ़वाली व कुमाउंनी कवियों ने भाषा साहित्य विकास में प्रशंशनीय कार्य किया किन्तु साथ ही संस्कृत व हिंदी प्रेम से कुमाउंनी व गढ़वाळी भाषा व व्याकरण को दरकिनार भी किया है. भाषा में हिंदी व संस्कृत शब्दों को बैठाने का काम व हिंदी व्याकरण से गढ़वाली -कुमाउनी व्याकरण को दूषित भी किया है.
पंत जी की इस कविता में आप देखेंगे कि पंत जी ने कहीं भी कोशिश नही कि कुमाउंनी व्याकरण के साथ छेद छड की जाय .
शायद यही अंतर होता है महान कवि व आम कवि में !
प्रस्तुति - भीष्म कुकरेती
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