इकीसवीं सदी क गढ़वाळी स्वांग/नाटक -1
रस, रस्याण अर रौंस
(इकीसवीं सदी मा नरेंद्र कठैत, भीष्म कुकरेती , कुलानन्द घनसाला , ललित केशवान, गिरीश सुंदरियाल का
गढवाली मा तकरीबन जण बीसेक स्वांग छपे/रचे होला. यूँ नाटकूं छाण निराळ से पैल नाटक विधा पर कुछ छ्वीं लगी जवान त भलो होलू)
रस, रस्याण अर रौंस
कला जरोरात से भैर हूणो एक बडी भारी जरूरत च .
कैं बि चीज तैं रचण से , बणाण से, कला जनमदि . कला क चीज/वस्तु तैं बिगरैली वस्तु, सुन्दर चीज बुल्दन.
रचण, रचना, अर रसौ-जनम एकी कामौ तीन व्यौपार छन. या इन बि त बुले सक्यांद बल इकु समौ तीन छण छन-
पैलू, आज अर अंत. य़ी त काल च या महाकाल च.
कला मा कै बि चीज/वस्तु को ध्येय होंद रचण अर रचना से रसिकौ बान रौंस लाण. असल मा रस एक
बिलखणि /(अद्भुत) अनुभूति च,
रस से रस्याण जन्मद अर रस्याण से रौंस आँदी .
प्लेटो क हिसाब से रस/रस्याण /रौंस एक भरमौ सुख च.
अरस्तु बुल्दो बल रस अनुकृति को आनन्द च .(अरस्तु कें बि मनिखौ रचना तैं अनुकृति /नकल बुल्दो छौ ).
वेद अर उपनिषद बुल्दन बल रस ब्रह्मा-स्वादौ भै च.
रसो वै स: . रस ह्येवायम लब्ध्वाअअनंदी भवति (तैत्तरीय उपनिषद ७-६१७)
भरत कु नाट्यशाश्त्र मा लिख्युं च बल जन तेल, मर्च, लूण, खटाइ -मिठै मैणु- मसालो
मिलैक दाळ भात-भुजी मा सवाद आन्दु अर खाणौ ज्यू बुल्यांद उनि साहित्य मा बि रचना से रस जन्मदु (भ.ना.शा.६-३२)
रस, रस्याण अर रौंस बस चेतना च.
रचना अर रसिक
रचना त कलाकार करदो पन रसिक कथगा इ होन्दन. पैलो त रचनाकार, फिर दिखंदेर, बंचनेर, सुणदेर अर समीक्षक आदि
१- रौंसौ बान सरल होण जरूरी च -- सरल अखंडि च मतबल रसिक तैं रौंसौ बान अपण ज्ञानो भार,ब्यौहार, उच्चाट , आड़
छुटि लीण पोडद
२- बिगरैल/बिगरैलि/ बिगरैलु - बिगरैल/बिगरैलि/ बिगरैलु बि अखंडि च. बिगरैल/बिगरैलि/ बिगरैलु पूरो च/पूर्ण च , अधुरो नी च .
फौड़ मा खांद दें इन नि दिखे जांद की लोगु क्या लारा/कपड़ा पैर्यां छन. बस रस्याण को रौंस लिए जांद .रौंस ओ बान
पूरो पूर्ण होण जरूरी च
३-रौंसै परिभासा- रौंस की परिभाषा नि करे जै स्क्यान्द. सैत च इलै भरत ण अपण नाट्य शाश्त्र मा रौंसै परिभ्षा नि दे.
बस्तु या रूप पूर्ण होंद इलै त रौंस आन्द.
४-रौंस/रस की छाँण निराळ (विश्लेषण ) - रौंस को विश्लेषण नि करे जान्द बस रौंस त लिए जांदी , हाँ छाँण निराळ (विश्लेषण )
रौंस तैं समजण मा मदद करी सकद बस.
५- काल (समौ ) अर रौंस - हम रौंस तैं समौ(काल), काम अर वांको वजै (कारण) क तराजू मा नि तोल सकदां .
नरेंद्र सिंह नेगी क गीत सुणद दें कैं लय /भौण तैं समौ क हिसाब से छाँण निराळ (विश्लेषण ) करिल्या त
इथगा मा रौंस त जाली इ दगड मा दुसरि/तिसरी लय/भौण ऐ जाली . रचना अखंडी च त रौंस बि अखंडी च अर रौंस तैं
तुलणो /नापणो क्वी पैमाना इ नी च ,
६ -कारण/वजै- समालोचक कै स्वांग/कविता/साहित्य की काट/सुकाट करदन अर कारण बतान्दन पण असल मा
कै साहित्यौ/रचना मा ज्वा रौंस च वो त वर्तमान इ ना वर्तमानो एक छण च. जब रसिक/ रौंस-लिंदर रौंस लीन्दो त असल मा वी
इ रौंस को अधीष्ठ्क/शाषक च अर कुछ हद तलक कर्ता बि च.द्याखो ना ! कै मड़घट मा क्वी हौंसदरि कविता बांचल त
रसिक तैं वा रौंस नि आली जै रौंसौ बान हंसदेरि कविता बांचे गे. रौन्सो बान रसिक को मन बि खाली होण चयेंद.
या ब्यौ मा पलाबन्दों टैम पर पंडित पिंड दानौ श्लोक बांचल त सुणदारुं तैं रौंस नि ऐ सकद किलैकि सुणदेरूं मन,वुद्धि ,अहम्
पिंड दानु निर्वेद भावना क बान खाली नि रौंदन.
कारण केवल यांत्रिक व्यख्या च, बस! अर आलोचना बि कखी ना कखी यांत्रिक विवेचना च. पण आलोचना क बंचनेर, सुणदेर , दिखनेर
आलोचना से रौंस लीन्दन तब वा घटना वर्तमानै च . अब जब हैंको आलोचक वीं पैलि वाळै आलोचना की आलोचना कॉरल त वा फिर से
यांत्रिक व्याख्या ह्व़े जाली.
रचना को भौतिक नाप-तोल त ह्व़े सकद च पण रौंस तैं त मैसूस करे जयांद बस. कारण या वजै त भूतकालो घटना च.
हाँ हमन रौंस किलै आई को नाप-तोलौ तरीका निकाळि यालि अर रचना की समालोचना यूं इ पैमानों से होंद.
रस, रस्याण अर रौंस की भारितीय आध्यात्मिक व्याख्या
रस, रस्याण अर रौंस अनुभूति च पण हम आलोचक फिर बि रस, रस्याण अर रौंस की व्याख्या करदा इ रौला
रस, रस्याण अर रौंस चेतना च बस.
महान दार्शनिक शंकर न 'आत्मा का गीत ' मा चेतना क परिभाषा कार अर दिखे जाउ त रौंस की यै गति च
आत्मा क गीत
ना मि अहम् अर ना मि कारण,
ना मि मन, ना इ विचार
ना मि सुणे सक्यान्द् ,ना शबदुं से ढळे स्क्यान्द ,
ना कबि मी सुंग्याई , ना कबि मी दिख्याई
ना उज्यळ मा, ना इ अन्ध्यर मा कैन पाई
ना त मि पृथ्वी मा रौंद ना इ मि अगास मा रौंद
मि त चेतना छौं , रौंस को दुसरो रूप बस,
मि त आनंद को आनन्दरूप छौं, रस्याणऔ रौंस छौं बस
ना म्यार क्वी नाम , ना म्यार क्वी जीवन, ना मि क्वी साँस लींद .
ना कै तत्व से मि बौण , ना मेरो सरैल, ना इ छौं तहबन्द
ना मीमा जवान, ना हथ खुट , ना मि विकसित होंद
चेतना छौं मि , रौंस छौं मि , मि त विलीनता को छौं आनन्द
ना मि घीण, ना मि मोह; भरम अर लालच को जितन्देर छौं मि
सिक्कीन कबि मेरी भुकी नि प्याई, गर्व मै पर कबि नि भिड्याई
त दौंकार ब्वालो या ब्वालो जलन, कैन बि जनम नि ल्याई
पुराणों विश्वास , पुराणों अविश्वास , पुराणों धन, पुराणि स्याणि -गाणि कि पौंच से दूर छौं मि
आनन्द का लारा पैर्दु , चेतना छौं मि , रौंस छौं मि
पाप-पुण्य, दुःख-सुख नि छन मेरी कुल-परम्परा
श्रुति ग्रन्थ, , जातरा, प्रार्थना नि छन मेरी कुल परम्परा
अर्पण, तर्पण, समर्पण नि छन मेरी कुल परम्परा
ना मि खाणा -बुखाणा , ना मि क्रिया खाणै, खन्देर बि नि छौं मि
चेतना छौं मि, आनन्द छौं मि, रौंस की रौंस छौं मि
मि मिरत्यु की घंघतोळ नि छौं , जाति की खन्दक मै फाड़ी नि सकदन
कै ब्व़े-बाबुन बच्चा बोलीक नि भट्याइ , जनम को बंधन मा मि कबि नि बंध्याइ
ना मि च्याला ना मि गुरु , सगा, सम्बन्धी , दगड्या म्यार कबि नि ह्व़ाइ
चेतना छौं मि , रौंस छौं मि , रौंस मा विलीन हूण इ मेरो आखरी छ्वाड़ ह्व़ाइ
मि ना त जणे सक्यान्द , ना मि ज्ञान छौं , ग्यानी बि मि नि छौं, निरंकारी रूप च मेरो
मि इन्द्रियों मा घुमणो रौंदु , पण इन्द्री नि छन बासो मेरो
छौंमि त अमर, निर्मल अर संतुलित , ना मि स्वछन्द, ना क्वी च बंधन मेरो
मि चेतना छौं, रौंस छौं , जख रौंस तख च बासो मेरो
(अनुवाद - भीष्म कुकरेती )
डा राधाकृष्णन न शंकर भाष्य पर भौत इ बढिया टिप्पणी लिखीं च (भारतीय दर्शन, -२, पृ. ३८२ -५७७ )
अर यिं टिप्पणि क लगा बगी इ भौत सा साहित्यकारून दुसर ढंग मा रस व्याख्या कार
जन की डा.हरद्वारी लाल शर्मा न रस, रस्याण को अध्यात्मिक हिसाबन इन व्याख्या कार -
१- रस औ बान आत्मा की जरुरात -
आत्मा रस औ बान एक सौंग जरोरात च
२- रस ल़ीणो बान रसिक ऐ स्वीकृति , रौंस अर रौंस मा डुबणो बान एक जागृत इच्छा (रसेच्छा ) जरूरी च.
३-हाँ रसेच्छा रौंस मा बाधक बि ह्व़े जान्दो. याने की चेतन मन मा रसेच्छा नि होण चयेंद पन विरोधाभास याच
अनुत्तेजक इच्छा रस पैदा नि करदी
४- एक हौर विरोधाभास च बल रसयाण लीणो बान इच्छा दमन बि जरुरी च.
५- साहित्यौ अर काला अ रौंस अ बान मन तैं अमन करण बि उनि जरुरी च जन योगभ्यास मा मन को रेचन हुंद.
६-दर्शकूं मन रेचन का वास्ता साहित्य अर कला मा गति लये जांद जै तैं संगीत मा लय बि बुले जांद .
आज बि भग्यान ललित मोहन थपलियालौ 'खाडू लापता ' नाटक पसंद करे जान्दन किलै कि ये स्वांग मा गति च.
७- नाटकों /स्वान्गुं मा दिखंदेरुं मन तैं अमन करणो बान या मन रेचन का वास्ता कति सुल्ट-ब्याग अर कबि कबि टुटब्याग
बि करण पोड़दन.
८- रस लींद दें बुद्धि तर्क, विचार, कल्पना से मन तैं निर्णय दींदु. हाँ जब बुद्धि कबि जादा हावी ह्व़े गे त ह्व़े सकद च
रौंस या रसयाण मा व्यवधान आई जालो. एकी स्वांग मा जादा रस होण से बि रस्याण मा व्यवधान ऐ जान्दो.
अर यो इ वजै च बल नरेंद्र कठैत को 'डा.आशाराम', भीष्म कुकरेती क 'बखरों ग्वैर स्याळ', अर ललित केशवान
कु ' लालसा' अर कुलानंद घनसाला क ' मनखी बाग' अर गिरीश सुंदरियाल औ 'असगार' स्वांग अलग अलग दिखेन्दन.
जख कुलानंद घनसाला क ' मनखी बाग' अर गिरीश सुंदरियाल औ 'असगार' स्वान्गुं मा जादा रस अर जादा भाव छन वुख
नरेंद्र कठैत को 'डा.आशाराम', भीष्म कुकरेती क 'बखरों ग्वैर स्याळ', अर ललित केशवान कु ' लालसा' मा संख्या क हिसाबन
रस अर भाव काम से कम छन. फिर गिरीश सुंदरियाल औ स्वांग ' ल़े ऐली पौड़ी !' अर 'असगार' मा बि रस/भाव संख्या क कारण
' ल़े ऐली पौड़ी !' 'असगार; से जादा रौन्सदार चितये जांद किलैकि 'असगार मा ' भौत सा रस अर भाव छन जब कि ' ल़े ऐली पौड़ी !'
द्विएक रसुं पर केन्द्रित हूण से जादा रौंस दे सकद . इनी 'लालसा' जादा प्रभाव छोड़दु किलैकि 'बखरों ग्वैर स्याळ' अर 'डा.आशाराम'
मा 'लालसा' से जादा रस छन. फिर भीष्म कुकरेती छ्वटु सि स्वांग ' स्पर्ष सुख' जादा याद औंद किलैकि ए स्वांग मा सबसे कम रस छन.
त नाटकूं क खासियत हूण चयेंद बल बुद्धि मन पर कम से कम हावी ह्वाऊ.
पण फिर तर्क, कल्पना अर विचार बि जरूरी छन किलैकि ये मामला मा मन बुद्धि कि इ सुणदो .
मन अर बुद्धि मा संतुलन रावो त चित्त रस मा बौगण बिसे जांद.
९- अहम् बुद्धि अर मन को अधिष्ठाता च त सौब रस्वादन मा अहम् को ही काम च.
हैंको ढंग मा इन बुले जांद बल जब अहम म्येरो से अलग हेवेक स्वयम मा आंदो .अर रस्वादन या रस्याणो रौंस
लीणो कुणि स्वयम मा इ आण जरोरी च . पन इखम बि विरोधाभास होंद. जन की स्वयं को रस क अनुसार कार्य करण से
रस्याण खतम ह्व़े जांद अर जु रस मा णि डुबद त रौंस नि आन्द.
१०- विलियम जेम्स अर कार्ल लांजे क मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से वाह्य संसार से सरैल मा फ़िजिऔलौजिकल बदलाव होण से
हम भावु पर प्रतिक्रिया करदवां या भैरो चेष्ठा से सरैल मा फ़िजिऔलौजिकल प्रतिक्रिया होंद. रौंस क बान सरेल अर भितरौ
चेष्टाओं मा बदलाव जरुरी छन.
११- कला, स्वांग या हौर दृश्य-काव्य मा ध्यान, अवधान, कल्पना, स्मृति, इन्द्रियुं से सम्वेदना ग्रहण जन बात जरूरी छन.
यां से मुखोऊ मिजाज मा बदलाव आन्द अर दिखे जाव त रौंस सरैलो अंग च.
१२- कला मा गति क सम्बन्ध जिकुड़ी/ह्रदय से च
१३- संतुलन अर संगति को मूलोस्थान सरैल, सम्वेदनशीलता अर हौरी चेष्ठा छन.
१४- रस मा जिन्दगी भार से मुक्ति मिलदी अर यीं मुक्ति क नाम च आनंद जु कुछ नि च बल्कण मा व्यक्तित्व-विलय च
१५- व्यक्तित्व विलय से एक नै सृष्ठी पैदा होंद जो समौ, जगा, जाती, तर्क, सत्य , न्याय, विवेचना आदि से अलग च.
१६- आत्म-सत्ता अनुभव से मूल भावना जनमन्दन जौं तैं धर्म, नीति, सभ्यता, संस्कृति न दबायुं रौंद
१७- रसानुभूति जीवनऐ एक सरलतम अनुभूति च
१८- रस्वादन या रस्याण मा स्वछन्द गति या साक्षात् स्वतंत्रता क दर्शन होन्दन.
१९- वस्तु तैं तोले जै स्क्यान्द च पण रौंस तैं ना त नपे जै सक्यांद ना ही विश्लेषित करे जै सक्यांद
पतांजलि क योग दर्शन मा स्वांग्कारूं बान हिदैत
. पतांजलि क योग सूत्र स्वांगकारूं बान कामौ सूत्र छन
तदा द्रष्टुः स्वरुपेअव्स्थानम् ।३।
तब, चेतना/आत्मा अपणी जोगमाया मा चमकदी
वृतिसारूप्यमित्र्त्र ।४।
हौरी समौ पर चेतना /आत्मा कबजाळ (वृति /फ़्ल्क्चुएसन) मा दिखे जांद
वृत्तय्यः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ।५।
वृति/कबजाळ/हेराफेरी पांच तरां होंदी अर कष्टकारी होंद
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृ तयः ।६।
प्रमाण- सै ज्ञान , अनुभवगत ज्ञान
विपर्या - मिथ्या ज्ञान या मिथ्या समझ
विकल्प - शक, सन्देह . कल्पना /दिवास्वप्न
निद्रा- सुपिन , अवचेतन मन
स्मृति - समळौण , याद
इ पांच इ वृति (फ़्ल्क्चुएसन) पैदा करदन
मतबल दर्शकूं सै ज्ञान, मिथ्या ज्ञान, कल्पना /दिवास्वप्न की शक्ति , अवचेतन मन अर स्मृति क ख्याल नाटक मा हूणि चएंदन
रस, रस्याण अर रौंस पर भारतौ स्वांग- शास्त्र्युं विचार
भरत मुनि क नाट्य शास्त्र तैं भारत मा बि बि उथगा इ मान्यता च जथगा जब भरत मुनि न रची छै ,क्वी बि भारतीय कथगा बि पाश्चात्य्वादी
ह्वाऊ तबि बि बगैर भरत मुनि क नाट्य शास्त्र की बात कर्याँ वो नि रै सकदो. भरत न रस अध्याय (६- ३२-से अगने ) मा रस अर भाव
अध्याय ९७-४ से अगने) मा भावुं बारा मा इन लयाख की मनोविज्ञान मा बि इ सत्य साबित हूणा छन .
१- सौन्दर्य से रिझण-भिजण हमारी मूल प्रवृति च
२- सौन्दर्य क आकर्षण से रौंस आन्द जु जिन्दगी क हौरी रसों से बिगळयूँ होंद
३- कला क पारिस्थित्यूँ तैं विभाव बुल्दन
४- विभावुन मा आल्म्बन अर उद्दीपन द्वी करण होन्दन जन से रौंस आँदी
५- स्थाई भावूँ बढ़ोतरी ही रस पैदा नि करदन बल्कण मा विभाओं से इ रस सम्पन हूण चएंद.
६-स्थाई भाव ऊँ क मूल टेक /अडसारा रसिकौ (दर्शक अर अभिनय कर्ता ) रौंस से लिप्त चेतना च
७-रसिक विभाओं से आकर्षित होंद
८- रौंस मा खाली मन इ प्रभावित णि होंद सरैल मा बि फिजियोलौजिकल बदलाव आन्दन
९- रौंस औण मा खाली स्थाई भाव इ नि स्फुटित होन्दन बल्कण मा हौरी मानसिक क्रिया बि शामिल होन्दन
जौं तैं ब्यभिचारी भाव बुले जांद.
१०- जन योग मा शम महत्व पूर्ण च उन्नी नाटकूं मा हौरी मानसिक फ्लक्चुएसनों को खतम होण बि जरोरी च
११- वस्तु मा कार्य-कारण सिद्धांत की अपणि अहमियत च
रस, रस्याण अर रौंस पर पश्चिमी विचार
पश्चिमी दर्शन अरस्तु क मिमेसिस याने अनुकरण से शुरू ह्व़े. मिमेसिस को हिसाब से चित द्रव्य को द्रवित(पिगळण ) होण से इ
रस जनमद /पैदा होंद .यूरोप मा भावना क स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नि छौ
यूरोप मा पालि दें दार्शनिक कांट न रौंस मा विचार, भावना अर संकल्प को महत्व स्थापित कार. जां से भावना, रेचन, विकास,
विरोध अर संवान्दुं महत्व समणि आई
पश्चिम मा मनोविज्ञान मा प्रगति होण भौत सि बात नाटकूं खुणि सामणि ऐन जांको छाण-निराळ अग्वाड़ी अ अध्याऊं मा होलू
रसिक को व्यक्तित्व
भरत नाट्य शाश्त्र मान्य बि च नाटक मा दर्शक इ रसिक नि होन्दन बलकण मा स्वांग करदार बि रसिक होन्दन.
जब तलक स्वांग करदार रौंस मा रसिक कि भूमिका नि निभाला ट नाटक पूरो होलू इ ना. इलै नाटक कि पूरी टीम अर दर्शक रसिकों श्रेणी मा आन्दन
व्यक्तित्व भौत सा घटकों मिळवाक् च इखमा सरैल बि च ट मानसिकता बि च. मानसिकता मा समाज, अर अनुभव सौब ऐ जान्दन.
बकै अग्वाड़ी क सोळियूँ मा......
१- नरेंद्र कठैत का नाटक डा ' आशाराम ' मा भाव
२- गिरीश सुंदरियाल क नाटक 'असगार' मा चरित्र चित्रण
३- भीष्म कुकरेती क नाटक ' बखरौं ग्वेर स्याळ ' मा वार्तालाप/डाइलोग
५- कुलानंद घनसाला क नाटक संसार
सन्दर्भ -
१० भारत नाट्य शाश्त्र अर भौं भौं आलोचकुं मीमांशा
२- भौं भौं उपनिषद
३- शंकर की आत्मा की कवितानुमा प्रार्थना
४-और्बास , एरिक , १९४६ , मिमेसिस
५- अरस्तु क पोएटिक्स
६- प्लेटो क रिपब्लिक
७-काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक ,
८- इम्मैनुअल कांट को साहित्य
९- हेनरिक इब्सन क नाटकूं पर विचार
१०- डा हरद्वारी लाल शर्मा
११ - ड्रामा लिटरेचर
१२ - डा सूरज कांत शर्मा
१३- इरविंग वार्डले, थियेटर क्रिटीसिज्म
१४- भीष्म कुकरेती क लेख
१५- डा दाताराम पुरोहित क लेख
१६- अबोध बंधु बहुगुणा अर डा हरि दत्त भट्ट शैलेश का लेख
१७- शंकर भाष्य
Copyright@ Bhishm Kukreti
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments