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Wednesday, December 7, 2011

गढवाली भाषा में समालोचना /आलोचना/समीक्षा साहित्य Criticism in Garhwali Literature


  गढवाली भाषा में समालोचना /आलोचना/समीक्षा साहित्य
                                                                            (गढवाली अकथात्मक गद्य -३ )
                                                                  (Criticism in Garhwali Literature )
                                                                                            भीष्म कुकरेती
                                         यद्यपि आधिनिक गढवाली साहित्य उन्नीसवीं सदी के अंत व बीसवीं सदी के प्रथम वर्षों में प्रारम्भ हो चूका था और आलोचना भी शुरू हो गयी थी. किन्तु आलोचना का माध्यम कई दशाब्दी तक हिंदी ही रहा .
यही कारण है कि गढवाली कवितावली सरीखे कवी संग्रह (१९३२) में कविता पक्ष , कविओं की जीवनी व साहित्यकला पक्ष पर टिप्पणी हिंदी में ही थी.
गढवाली सम्बन्धित भाषा विज्ञानं व अन्य भाषाई अन्वेषणात्मक, गवेषणात्मक साहित्य भी हिंदी में ही लिखा गया . वास्तव में गढवाली भाषा में समालोचना साहित्य की शुरुवात ' गढवाली साहित्य की भूमिका (१९५४ ) पुस्तक से हुयी .
फिर बहुत अंतराल के पश्चात १९७५ से गाडम्यटेकि गंगा के प्रकाशन से ही गढवाली में गढवाली साहित्य हेतु लिखने का प्रचलन अधिक बढ़ा . यहाँ तक कि १९७५ से पहले प्रकाशित साहित्य पुस्तकों की भूमिका भी हिंदी में ही लिखीं गईं हैं.
देर से ही सही गढवाली आलोचना का प्रसार बढ़ा और यह कह सकते हैं कि १९७५ ई. से गढवाली साहित्य में आलोचना विधा का विकास मार्ग प्रशंशनीय है .
भीष्म कुकरेती के शैलवाणी वार्षिक ग्रन्थ ( २०११-२०१२) का आलेख ' गढवाली भाषा में आलोचना व भाषा के आलोचक' के अनुसार गढवाली आलोचना में आलोचना के पांच प्रकार पाए गए हैं
१- रचना संग्रहों में भूमिका लेखन
२- रचनाओं की पत्र पत्रिकाओं में समीक्षा
३- निखालिस आलोचनात्मक लेख.निबंध
४- भाषा वैज्ञानिक लेख
५- अन्य प्रकार
रचना संग्रन्हों व अन्य माध्यमों में गढवाली साहित्य इतिहास व समालोचना /समीक्षा
रचना संग्रहों में गढवाली साहित्य इतिहास मिलता है जिसका लेखा जोखा इस प्रकार है
गाडम्यटेकि गंगा (सम्पादक अबोध बंधु बहुगुणा , १९७५) : गाडम्यटेकि गंगा की भूमिका लेखक अबोध बंधु बहुगुणा व उप संपादक दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल हैं. भूमिका में गढवाली गद्य का आद्योपांत इतिहास
व गढवाली गद्य के सभी पक्षों व प्रकारों पर साहित्यिक ढंग से समालोचना हुयी है .गाडम्यटेकि गंगा गढवाली समालोचना साहित्य में ऐतिहासिक घटना है
शैलवाणी (सम्पादक अबोध बंधु बहुगुणा १९८१): 'शैलवाणी' विभिन्न गढवाली कवियों का वृहद कविता संग्रह है और 'गाडम्यटेकि गंगा' की तरह अबोध अबन्धु बह्गुना णे गढवाली कविता का संक्षिप्त समालोचनात्मक इतिहास लिखा व प्रत्येक कवि कि संक्षिप्त काव्य सम्बंधित जीवनी भी प्रकाशित की . शैलवाणी गढवाली कविता व आलोचना साहित्य का एक जगमगाता सितारा है
गढवाली स्वांग को इतिहास (लेख ) : मूल रूप से डा सुधा रानी द्वारा लिखित 'गढवाली नाटक' (अधुनिक गढवाली नाटकों का इतिहास ) का अनुवाद भीष्म कुकरेती ने गढवाली में कर उसमे आज तक के नाटकों को जोडकर ' चिट्ठी पतरी ' के नाट्य विशेषांक व गढवाल सभा, देहरादून के लोक नाट्य सोविनेअर (२००६) में भी प्रकाशित करवाया
अंग्वाळ (250 से अधिक कविओं का काव्य संग्रह, स. मदन डुकलाण, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने १९०० ई से लेकर प्रत्येक युग में परिवर्तन के दौर के आयने से गढवाली कविता को आँका व अब तक सभी कवियों की जीवन परिचय व उनके साहित्य के समीक्षा भी की गयी . यह पुस्तक एवम भीष्म कुकरेती की गढवाली कविता पुराण (इतिहास) इस सदी की गढवाली साहित्य की महान घटनाओं में एक घटना है . गढवाली कविता पुराण 'मेरापहाड़' (२०११) में भी छपा है.
आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास ) अर संसारौ हौरी भाषौं कथाकार : भीष्म कुकरेती द्वारा आधुनिक गढवाली कहानी का साहित्यिक इतिहास , आधुनिक गढवाली कथाओं की विशेषताओं व गुणों का विश्लेष्ण 'आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास ) अर हौरी भाषौं कथाकार' नाम से शैलवाणी साप्ताहिक में सितम्बर २०११ से क्रमिक रूप से प्रकाशित हो रहा है. इस लम्बे आलेख में भीष्म कुकरेती ने गढवाली कथाकारों द्वारा लिखित कहानियों के अतिरिक्त १९० देशों के २००० से अधिक कथाकारों की कथाओं पर भी प्रकाश डाला है.
रचना संग्रहों में भूमिका लेखन
पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षा का जीवन काल बहुत कम रहता है और फिर पत्र पत्रिकाओं के वितरण समस्या व रख रखाव के समस्या के कारण पत्र पत्रिकाओं में छपी
समीक्षाएं साहित्य इतिहासकारों के पास उपलब्ध नही होती हैं अत: समीक्षा के इतिहास हेतु सात्यिक इतिहासकारों को रचनाओं की भूमिका पर अधिक निर्भर करना होता है.
नागराजा महाकाव्य (कन्हया लाल डंडरियाल , १९७७ व २००४ पाँच खंड ) की भूमिका १९७७ में डा गोविन्द चातक ने कवि के भाव पक्ष, विषय पक्ष व शैली पक्षों का विश्लेष्ण विद्वतापूर्ण किया तो २००४ में नाथिलाल सुयाल ने डंडरियाल के असलियतवादी पक्ष की जांच पड़ताल की
पार्वती उपन्यास (ल़े.डा महावीर प्रसाद गैरोला, १९८०) गढवाली के प्रथम उपन्यास की भूमिका कैप्टेन शूरवीर सिंह पंवर ने लिखी जिसमे पंवार ने गढवाली शब्द भण्डार व गढवाली साहित्य विकाश के कई पक्षों की विवेचना की है.
कपाळी की छ्मोट (कवि: महावीर गैरोला १९८०) कविता संग्रह की भूमिका में मनोहर लाल उनियाल ने गैरोला की दार्शनिकता, कवि के सकारात्मक पक्ष उदाहरणों सहित पाठकों के सामने रखा
शैलवाणी (सम्पादक अबोध बंधु बहुगुणा १९८१): 'शैलवाणी' विभिन्न गढवाली कवियों का वृहद कविता संग्रह है और 'गाडम्यटेकि गंगा' की तरह अबोध अबन्धु बह्गुना णे गढवाली कविता का संक्षिप्त समालोचनात्मक इतिहास लिखा व प्रत्येक कवि कि संक्षिप्त काव्य सम्बंधित जीवनी भी प्रकाशित की . शैलवाणी गढवाली कविता व आलोचना साहित्य का एक जगमगाता सितारा है .
खिल्दा फूल हंसदा पात ( क. ललित केशवान , १९८२ ) प्रेम लाल भट्ट ने ललित केशवान के कविता संग्रह के विद्वतापूर्ण भूमिका लिखी जो गढवाली आलोचना को सम्बल देने में समर्थ है
गढवाली रामायण लीला (कवि :गुणा नन्द पथिक , १९८३ ) की भूमिका डा पुरुषोत्तम डोभाल ने लिखी जिसमे डोभाल ने मानो विज्ञान भाषा विकास, दर्शन, , वास्तविकता की महत्ता, रीति रिवाजों व कविता के अन्य पक्षों की विवेचना की.
इलमतु दादा (क. जयानंद खुगसाल बौळया,१९८८ ) की भूमिका कन्हयालाल डंडरियाल , सुदामा प्रसाद प्रेमी व भ.प्र. नौटियाल ने लिखीं व कवि की कविताओं के कई पक्षों पर अपने विचार दिए
ढागा से साक्षात्कार (क.नेत्र सिंह असवाल, १९८८) की भूमिका राजेन्द्र धष्माना ने लिखी और गढवाली आलोचना को ण्या रास्ता दिया. यह भूमिका गढवाली आलोचना के लिए एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है जिसमे धष्माना ने गज़ल का गढवाली नाम 'गंजेळी कविता' दिया.
चूंगटि (क.सुरेन्द्र पाल,२०००) की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने आलोचना के सभी पक्षों को ध्यान रखकर भूमिका लिखी और जता दिया के मधुसुदन थपलियाल गढवाली आलोचना का चमकता सितारा है
उकताट (क. हरीश जुयाळ, २००१) की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने आज के सन्दर्भ में साहित्य की भूमिका, अनुभवगत साहित्य की महत्ता, भविष्य की ओर झांकना , रचनाधर्मिता, सन्दर्भ अन्वेषण आदि विषय उठाकर प्रमाण दे दिया कि थपलियाल गढवाली समालोचना का एक स्मरणीय स्तम्भ है.
आस औलाद नाटक (कुलानंद घनसाला, २००१) की भूमिका में प्रसिद्ध रंग शिल्पी राजेन्द्र धष्माना ने रंगमंच , रंगकर्म, संचार विधा के गूढ़ तत्व , मंचन, कथासूत्र, सम्वाद, मंचन प्रबंधन, निर्देशक की भूमिका जैसे आदि ज्वलंत प्रश्नों पर कलम चलाई है.
आँदी साँस जांदी साँस (क. मदन डुकलाण २००१ ) की भूमिका अबोध बंधु बहुगुणा ने लिखी और कविता में कविता स्वर व गहराई, शब्द सामर्थ्य-अर्थ अन्वेषण . कविताओं में सन्दर्भों व प्रसंगों का औचित्य जैसे अहम् सवालों की जाँच पड़ताल की.
ग्वथनी गौं बटे (स. मदन डुकलाण 2002 ) विविध कवियों के काव्य संग्रह में सम्पादक मदन डुकलाण ने गढवाली कविता विकास के कुछ महत्वपूर्ण दिशाओं का बोध कराया व कवियों द्वारा कविताओं में समयगत परिवर्तन विषय को उठाया
ललित केशवान ने 'गंगा जी का जौ', 'गुठ्यार', 'गाजी डोट कौम ', काव्य संग्रहों की भूमिका लिखी
हर्वी-हर्वी (मधुसुदन थपलियाल (२००२) गढवाली भाषा का प्रथम गज़ल संग्रह है और इस ऐतिहासिक संग्रह की भूमिका लोकेश नवानी णे लिखी जिसमे भाषा में प्रयोगवाद की महत्ता, श्रृंगार रस में जिन्दगी के सभी क्षण, साहित्य में असलियत व रहस्यवाद का औचित्य जैसे विषयों का निरीक्षण किया है
डा आशाराम नाटक ( ल़े.नरेंद्र कठैत २००३) के भूमिका पौड़ी के सफल रंगकर्मी त्रिभुवन उनियाल, बृजेंद्र रावत व प्रदीप भट्ट लिखी जिसमे नाटक के सफल मंचन में आवश्यक तत्वों की विवेचना की गयी है
धीत (क.डा नरेंद्र गौनियाल २००३) की भूमिका में कवि व कवित्व की आवश्यकता आदि प्रश्नों की भूमिका
इनमा कनकैक आण वसंत (क.वीरेन्द्र पंवार , २००४ ) कविता संग्रह की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने कविता क्या है, कविता का औचित्य, किसके ल्ये कविता, कविता में कवि का पक्ष आदि विषयों की जाँच पड़ताल बड़े अच्छे ढंग से की है
अन्ज्वाळ (क.कन्हयालाल डंडरियाल, २००४) की भूमिका में गिविंद चातक ने कवि के कवित्व के सभी पक्षों को पाठकों के सामने रखा .
खिगताट (क. हरीश जुयाल, २००४) के भूमिका में भूमिकाकार गिरीश सुंदरियाल ने 'हास्य का हौन्सिया खुणे जुहारा :व्यंग्य का बादशाह खुणे सलाम' नाम से भिमिका लिखी व हरीश की कविताओं के आद्योपांत सार्थक विश्लेष्ण किया
बिज़ी ग्याई कविता (अट्ठारह कवियों का कविता संग्रह, सन. मधुसुदन थपलियाल,२००४) के सम्पादकीय में कविता विकास व सभी कवियों की अति संक्षिप्त जीवनी भी है.
उड़ घुघती उड़ (गढवाली कुमाउनी कवियों का कविता संग्रह , २००५) में गढवाली भाषा हेतु डा नन्द किशोर ढौंडियाल ने भूमिका लिखी जिसमे ढौंडियाल ने कविता में कवि मस्तिस्क व ह्रदय की महत्ता का विवेचन सरलता से किया
टुप टप (क.नरेंद्र कठैत २००६) के भूमिका में वीरेन्द्र पंवार ने कवि के कविताओं की जांच पड़ताल की
अन्वार (गीतकार : गिरीश सुंदरियाल , २००६) के भूमिका में मदन डुकलाण ने कवि के भाव-विचार , अनुभूति-अभिव्यक्ति का पठनीयता व कविता के प्रभावशीलन पर प्रभाव की आवश्यकता, कवि का सामज व स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व, जैसे विषयों की छान बीन की ,
बसुमती कथा संग्रह (क.डा उमेश नैथाणी २००६) के भूमिका में डा वीरेन्द्र पंवार ने कथा साहित्य के मर्म का निरीक्ष्ण किया
ग्वे (स.तोताराम ढौंडियाल, २००७ ) स्युसी बैजरों के स्थानीय कवियों के काव्य संग्रह के भूमिका में तोताराम ढौंडियाल ने कविधर्म व कविताओं का वास्तविक उद्देस जैसे प्रश्नों पर अपनी दार्शनिक राय रखी.
मौळयार (क.गिरीश सुंदरियाल, २००८ ) के भूमिका में गणेष खुकसाल गणी ने कविता को दुःख मुक्ति का साधन बताया व कविता में आख्यान, भौगोलिक पहचान, बदलाव, व शैली की विवेचना की
कुल़ा पिचकारी (व्यंगकार : नरेंद्र कठैत ) व्यंग्य संग्रह के भूमिका में भीष्म कुकरेती ने कठैत के प्रत्येक व्यंग्य की जग प्रसिद्ध व्यंग्यकारों के व्यंग्य संबंधी कथनों के सापेक्ष तौला व व्यंग्य विधा की परभाषा भी दी .
दीवा ह्व़े जा दैणी (क.ललित केशवान २००९) की भूमिका प्रेम लाल भट्ट ने लिखी
आस (क.शांति प्रकाश जिज्ञासु, २००९) की भूमिका में लोकेश नवानी ने गढवाली कविता विकास व गढवाली मानस में भौतिक-मानसिक परिवर्तन की बात उठाई
गीत गंगा (गी.चन्द्र सिंह राही , २०१०) की भूमिका में सुदामा प्रसाद प्रेमी ने राही के कुछ गीतों का विश्लेष्ण काव्य शाश्त्र के आधार पर किया
नरेंद्र कठैत के व्यंग्य संग्रह (२००९) के भूमिका शिव राज सिंह रावत 'निसंग ' ने लिखी
डा . नन्द किशोर ढौंडियाल ने आशा रावत के नाटक हाँ होसियारपुर(२००७) , राजेन्द्र बलोदी के कविता संग्रह 'टुळक ' की भूमिका लिखी
मनिख बाघ (नाटक , कुला नन्द घनसाला , २०१०) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने गढवाली नाटकों का ऐतिहासिक अध्ययन व संसार के अन्य प्रसिद्ध नाटकों के परिपेक्ष में मनिख बाघ की समीक्षा की.
कोठी देहरादून बणोला (कवि हेम भट्ट, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने सातवीं सदी से लेकर आज तक के कई भाषाओं के जग प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के साथ भट्ट की कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया.
कबलाट (भीष्म कुकरेती का व्यंग्य संग्रह, २०११) के भूमिका पूरण पंत 'पथिक' ने लिखी व भीष्म कुकरेती के विविध साहित्यिक कार्यकलापों के बारे में पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया
अंग्वाळ (250 से अधिक कविओं का काव्य संग्रह, स. मदन डुकलाण, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने १९०० ई से लेकर प्रत्येक युग में परिवर्तन के दौर के आयने से गढवाली कविता को आँका व अब तक सभी कवियों की जीवन परिचय भी दिया.
गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षायें
.
ऐसा लगता है कि गढवाली भाषा की पुस्तकों की समीक्षा/समालोचना सं १९८५ तक बिलकुल ही नही था, कारण गढवाली भाषा में पत्र पत्रिकाओं का ना होना . यही कारण है कि अबोध बंधु बहुगुणा ने 'गाड म्यटेकि गंगा (१९७५) व डा अनिल डबराल ने 'गढवाली गद्य की परम्परा : इतिहास से आज तक ' (२००७) में १९९० तक के गद्य इतिहास में दोनों विद्वानों ने समालोचना को कहीं भी स्थान नही दिया . इस लेख के लेखक ने धाद के सर्वेसर्वा लोकेश नवानी को भी सम्पर्क किया तो लोकेश ने कहा कि धाद प्रकाशन समय ( १९९० तक) में भी गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षा का जन्म नही हुआ था. (सम्पर्क ४ दिसम्बर २०११, साँय १८.४२ )
भीष्म कुकरेती की ' बाजूबंद काव्य (मालचंद रमोला ) पर समीक्षा गढ़ ऐना ( फरवरी १९९० ) में प्रकाशित हुयी तो भीष्म कुकरेती द्वारा पुस्तक में कीमत न होने पर समीक्षा में /व व्यंग्य चित्र में फोकटिया गढवाली पाठकों की मजाक उड़ाने पर अबोध बंधु बहुगुणा ने सख्त शब्दों में ऐतराज जताया (देखे गढ़ ऐना २७ अप्रि, १९९०, २२ मई १९९० अथवा एक कौंळी किरण, २००० ) .जब की माल चन्द्र रमोला ने लिखा की भीष्म की यह टिपणी सरासर सच्च है.
भीष्म कुकरेती ने गढ़ ऐना (१९९०) में ही जग्गू नौडीयाल की 'समळऔण' काव्य संग्रह व प्रताप शिखर के कथा संग्रह 'कुरेडी फटगे' की भी समीक्षा की गयी
भीष्म कुकरेती ने 'इनमा कनकैक आण वसंत ' की समीक्षा (खबर सार २००६) के जिसमे भीष्म ने डा. वीरेन्द्र पंवार के कविताओं को होते परिवर्तनों की दृष्टि से टटोला
भीष्म कुकरेती की ' पूरण पंत के काव्य संग्रह 'अपणयास का जलड' की समालोचना ; गढवाली धाई ( २००५ ) में प्रकाशित हुयी .
दस सालै खबर सार (२००९) की भीष्म कुकरेती द्वारा अंग्रेजी में समीक्षा का गढवाली अनुबाद खबर सार (२००९) में मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ
गढवाली पत्रिका चिट्ठी पतरी में प्रकाशित समीक्षाएं
चिट्ठी पतरी के पुराने रूप 'चिट्ठी' (१९८९) में कन्हैयालाल ढौंडियाल के काव्य संग्रह 'कुएड़ी' की समीक्षा निरंजन सुयाल ने की
बेदी मा का बचन (क.सं. महेश तिवाड़ी) की समीक्षा देवेन्द्र जोशी ने कई कोणों से की (चिट्ठी पतरी १९९८) .
प्रीतम अपच्छ्याण की 'शैलोदय' की समीक्षा चिट्ठी पतरी (१९९९) में प्रकशित हुयी और समीक्षा साक्ष्य है कि प्रीतम में प्रभावी समीक्षक के सभी गुण है
देवेन्द्र जोशी की 'मेरी आज्ञाळ' कविता संग्रह (चट्ठी पतरी २००१ ) समालोचना एक प्रमाण है कि क्यों देवेन्द्र जोशी को गढवाली समालोचनाकारों की अग्रिम श्रेणी में रखा जाता है.
अरुण खुगसाल ने नाटक आस औलाद की समालोचना बड़े ही विवेक से चिट्ठी पतरी (२००१) में की व नाटक के कई पक्षों की पड़ताल की
आवाज (हिंदी-गढवाली कविताएँ स. धनेश कोठारी ) की समीक्षा संजय सुंदरियाल ने चिट्ठी पतरी ( २००२) में निष्पक्ष ढंग से की
हिंदी पुस्तक ' बीसवीं शती का रिखणीखाळ ' के समालोचना डा यशवंत कटोच ने बड़े मनोयोग से चिट्ठी पतरी (२००२) में की और पुस्तक की उपादेयता को सामने लाने में समालोचक कामयाब हुआ.
आँदी साँस जांदी साँस (क.स मदन डुकल़ाण ) की चिट्ठी पतरी (२००२ ) में समीक्षा भ.प्र. नौटियाल ने की
उकताट ( काव्य, हरेश जुयाल) की विचारोत्तेजक समीक्षा देवेन्द्र पसाद जोशी ने चिट्ठी पतरी ( २००३ ) में प्रकाशित की.
हर्बि हर्बि (काव्य स. मधुसुदन थपलियाल) की भ. प्र. नौटियाल द्वारा चिट्ठी पतरी (२००३) में प्रकाशित हुयी .
गैणि का नौ पर (उप. हर्ष पर्वतीय ) की समीक्षा चिठ्ठी पतरी (२००४ ) में छपी.समीक्षा में देवेन्द्र जोशी ने उपन्यास के लक्षणों के सिधान्तों के तहत समीक्षा के
अन्ज्वाळ ( कन्हैया लाल डंडरियाल ) की भ.प्र. नौटियाल ने द्वारा समीक्षा 'चिट्ठी पतरी (२००४ ) में प्रकाशित हई .
डा. नन्द किशोर ढौंडियाल द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षाएं
डा नन्द किशोर का गढवाली, हिंदी पुस्तकों के समीक्षा में महान योगदान है. डा ढौंडियाल की परख शाश्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित , न्यायोचित व तर्क संगत होती है. डा ढौंडियाल की समीक्षाओं का ब्योरा इस प्रकार है
'कांति ' - खबर सार (२००१)
'समर्पित दुर्गा' - खबर सार (२००१ )
'कामनिधी' खबर सार (2001)
रंग दो - खबर सार (२००२ )
'उकताट'- खबर सार (२००२)
'हर्बि - हर्बि ' खबर सार (२००२)
'तर्पण ' खबर सार (२००३)
पहाड़ बदल रयो - खबर सार (२००३)
'धीत' - खबर सार (२००३)
'बिज़ी ग्याई कविता' - खबर सार (२००४)
गढवाली कविता' -खबर सार (२००५)
'शैल सागर' खबर सार (२००६)
'टळक मथि ढळक'- खबर सार (२००६)
'संकवाळ ' की समीक्षा खबर सार (२०१०)
'दीवा दैण ह्वेन '- खबर सार (२०१०)
'आस' -खबर सार (२०१०)
ग्वे -खबर सार (२०१०)
उमाळ - खबर सार (२०१०)
'प्रधान ज्योर '- खबर सार (२०१०)
पाणी - खबर सार (२०११)
डा वीरेन्द्र पंवार की गढवाली भाषा में समीक्षाएं
डा वीरेन्द्र पंवार गढवाली समालोचना का महान स्तम्भ है . डा पंवार के बिना गढवाली समालोचना के बारे में सोचा ही नही जा सकता है . डा पंवार ने अपनी एक शैली परिमार्जित की है जो गढवाली आलोचना को भाती भी है क्योंकि आम समालोचनात्मक मुहावरों के अतिरिक्त डा पंवार गढवाली मुहावरों को आलोचना में भी प्रयोग करने में दीक्षित है. डा वीरेंद्र पंवार की पुस्तक समीक्षा का संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार है
आवाज- खबर सार (२००२)
लग्याँ छंवां - खबर सार (२००४)
दुनया तरफ पीठ' - खबर सार (२००५)
केर'- खबर सार (२००५)
घंगतोळ -खबर सार (२००८)
टुप टप -खबर सार (२००८)
कुल़ा पिचकारी -खबर सार (२००८)
कुल़ा पिचकारी -खबर सार (२००८)
डा. आशाराम ' -खबर सार (२००८)
अडोस पड़ोस - खबर सार (२००९)
मेरी पूफू - खबर सार (२००९)
दीवा दैणि ह्वेन -खबर सार (२०१०)
खबर सार दस साल की - खबर सार (२०१०)
ज्यूँदाळ - खबर सार (२०११)
पाणी' - खबर सार (२०११)
गढवाली भाषा के शब्द संपदा - खबर सार (२०११)
सब्बी मिलिक रौंला हम - खबर सार (२०११)
आस - रंत रैबार (२०११)
फूल संगरांद - खबर सार (२०११)
चिट्ठी पतरी विशेषांक - खबर सार (२०११)
द्वी आखर - खबर सार (२०११)
ललित मोहन कोठियाल की भी दो पुस्तकों की समीक्षा खबर सार में प्रकाशित हुईं हैं.
संदीप रावत द्वारा उमेश चमोला कि पुस्तक की समालोचना खबर सार (२०११) में प्रकाशित हुयी
.
मानकीकरण पर आलोचनात्मक लेख
मानकीकरण गढवाली भाषा हेतु एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और मानकीकरण पर बहस होना लाजमी है. मानकीकरण के अतिरिक्त गढवाली में हिंदी का अन्वश्य्क प्रयोग भी अति चिंता का विषय रहा है जिस पर आज भी सार्थक बहस हो रहीं हैं.
रिकोर्ड या भीष्म कुकरेती की जानकारी अनुसार , गढवाली में मानकी करण पर लेख भीष्म कुकरेती ने ' बीं बरोबर गढवाली' धाद १९८८, अबोध बंधु बहुगुणा का लेख ' भाषा मानकीकरण 'कि भूमिका' (धाद, जनवरी , १९८९ ) में छापे थे. जहां भीष्म कुकरेती ने लेखकों का धयन इस ओर खींचा कि गढवाली साहित्य गद्य में लेखक अनावश्यक रूप से हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं वहीं अबोध बंधु बहुगुणा ने भाषा मानकीकरण के भूमिका (धाद, १९८९) गढवाली म लेस्ख्कों द्वारा स्वमेव मानकीकरण पर जोर देने सम्बन्धित लेख है. तभी भीष्म कुकरेती के सम्वाद शैली में प्रयोगात्त्म्क व्यंगात्मक लेख 'च छ थौ ' (धाद, जलाई, १९९९, जो मानकीकरण पर चोट करता है ) इस लेख के बारे में डा अनिल डबराल लिखता है ' सामयिक दृष्टि से इस लेख ने भाषा के सम्बन्ध में विवाद को तीब्र कर दिया था.". इसी तरह भीष्म कुकरेती का एक तीखा लेख 'असली नकली गढ़वाळी' (धाद जून १९९०) प्रकाशित हुआ जिसने गढवाली साहित्य में और भी हलचल मचा दी थी. मुख्य कारण था कि इस तरह की तीखी व आलोचनात्मक भाषा गढवाली साहित्य में अमान्य ही थी. 'असली नकली गढ़वाळी' के विरुद्ध में मोहन बाबुलकर व अबोध बंधु बहुगुणा भीष्म कुकरेती के सामने सीधे खड़े मिलते है . मोहन बौबुलकर ने धाद के सम्पादक को पत्र लिखा कि ऐसे लेख धाद में नही छपने चाहिए. वहीं अबोध बंधु बहुगुणा ने ' मानकीकरण पर हमला (सितम्बर १९९०) ' लेख में भीष्म कुकरेती की भर्त्सना की. बहुगुणा ने भी तीखे शब्दों का प्रयोग किया. अबोध बंधु के लेख पर भी प्रतिक्रया आई . देवेन्द्र जोशी ने धाद (दिसम्बर १९९०) में ' माणा पाथिकरण ' बखेड़ा पर बखेड़ा ' लेख/पत्र लिखा कि बहुगुणा को ऐसे तीखे शब्द इस्तेमाल नही करने चाहिए थे व इसी अंक में लोकेश नवानी ने मानकीकरण की बहस बंद करने की प्रार्थना की . रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' एक लम्बा पत्र भीष्म कुकरेती को भेजा , पत्र भीष्म कुकरेती के पक्ष में था.
इस ऐतिहासिक बहस ने गढवाली साहित्य में आलोचनात्मक साहित्य को साहित्यकारों के मध्य खुलेपन से विचार विमर्श का मार्ग प्रसस्त किया व आलोचनात्मक साहित्य को विकसित किया.
भाषा संबंधी ऐतिहासिक वाद विवाद के सार्थक सम्वाद
. गढवाली भाषा में भाषा सम्बन्धी वाद विवाद गढवाली भाषा हेतु विटामिन का काम करने वाले हैं.
जब भीष्म कुकरेती के ' गढ़ ऐना (मार्च १९९० ), में ' गढवाली साहित्यकारुं तैं फ्यूचरेस्टिक साहित्य' लिखण चएंद ' जैसे लेख प्रकाशित हुए तो अबोध बंधु बहुगुणा का प्रतिक्रियासहित ' मौलिक लिखाण सम्बन्धी कतोळ-पतोळ' लेख गद्ध ऐना (अप्रैल १९९० ) में प्रकाशित हुआ व यह शिलशिला लम्बा चला . भाषा सम्बन्धी कई सवाल भीष्म कुकरेती के लेख 'बौगुणा सवाल त उख्मी च ' ९ग्ध ऐना मई १९९०), बहुगुणा के लेख 'खुत अर खपत' (ग.ऐना, जूं १९९० ) , भीष्म कुकरेती का लेख ' बहुगुणा श्री ई त सियाँ छन ' (गढ़ ऐना, १९९० ) व 'बहुगुणा श्री बात या बि त च ' व बहुगुणा का लेख 'गाड का हाल' (सभी गढ़ ऐना १९९० ) गढवाली समालोचना इतिहास के मोती हैं . इस लेखों में गढवाली साहित्य के वर्तमान व भविष्य, गढवाली साहित्य में पाठकों के प्रति साहित्यकारों की जुमेवारियां, साहित्य में साहित्य वितरण की अहमियत , साहित्य कैसा हो जैसे ज्वलंत विषयों पर गहन विचार हुए.
कवि व समालोचक वीरेन्द्र पंवार के एक वाक्य ' गढवाली न मै क्या दे' पर सुदामा प्रसाद 'पेमी' जब आलोचना की तो खबर सार प्रतिक्रिय्स्वरूप में कई लेख प्रकाशित हुए
२००८ में जब भीष्म कुकरेती का लम्बा लेख (२२ अध्याय ) ' आवा गढ़वाळी तैं मोरण से बचावा' एवं ' हिंदी साहित्य का उपनिवेशवाद को वायसराय ' (जिसमे भाषा क्यों मरती है, भाषा को कैसे बचाया जा सकता है, व पलायन, पर्यटन का भाषा संस्कृति पर असर , प्रवास का भाषा साहित्य पर प्रभाव, जैसे विषय उठाये गये हैं ) खबर सार में प्रकाशित हुआ तो इस लेखमाला की प्रतिक्रियास्वरूप एक सार्थक बहस खबर सार में शुरू हुयी और इस बहस में डा नन्द किशोर नौटियाल , बालेन्दु बडोला, प्रीतम अपछ्याण, सुशिल पोखरियाल सरीखे साहित्यकारों ने भाग लिया . भीष्म कुकरेती का यह लंबा लेख रंत रैबार व शैलवाणी में भी प्रकाशित हुआ .
इसी तरह जब भीष्म कुकरेती ने व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत के एक वाक्य पर इन्टरनेट माध्यम में टिपण्णी के तो भीष्म कुकरेती की टिपणी विरुद्ध नरेंद्र कठैत व विमल नेगी की प्रतिक्रियां खबर सार में प्रकाशित हुईं (२००९) और भीष्म की टिप्पणी व प्रतिक्रियां आलोचनात्मक साहित्य की धरोहर बन गईं.
मोबाइल माध्यम में भी गढवाली भाषा साहित्य पर एक बाद अच्छी खासी बहस चली थी जिसका वर्णन वीरेन्द्र पंवार ने खबर सार में प्रकाशित की
पाणी के व्यंग्य लेखों को लेखक नरेंद्र कठैत व भूमिका लेखक 'निसंग' द्वारा निबंध साबित करने पर डा नन्द किशोर ढौंडियाल ने खबर सार (२०११) में लिखा कि यह व्यंग्य संग्रह लेख संग्रह है ना कि निबंध संग्रह तो भ.प्र. नौटियाल ने प्रतिक्रिया दी (खबर सार , २०११).
सुदामा प्रसाद प्रेमी व डा महावीर प्रसाद गैरोला के मध्य भी साहित्यिक वाद हुआ जो खबर सार ( २००८ ) में चार अंकों छाया रहा
इसी तरह कवि जैपाल सिंह रावत 'छिपडू दादा ' के एक आलेख पर सुदामा प्रसाद प्रेमी ने खबर सार (२०११) में तर्कसंगत प्रतिक्रया दी
गढवाली में गढवाली भाषा सम्बन्धी साहित्य
गढवाली में गढ़वाली भाषा , साहित्य सम्बन्धी लेख भी प्रचुर मात्र में मिलते हैं . इस विषय में कुछ मुख्य लेख इस प्रकार हैं.
गढवाली साहित्य की भूमिका पस्तक : आचार्य गोपेश्वर कोठियाल के सम्पादकत्व में गढवाली साहित्य की भूमिका पस्तक पुस्तक १९५४ में प्रकाशित हुयी जो गढवाली भाषा साहित्य की जाँच पड़ताल की प्रथम पुस्तक है. इस पुस्तक में भगवती प्रसाद पांथरी, भगवती प्रसाद चंदोला, हरि दत्त भट्ट शैलेश, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, राधा कृष्ण शाश्त्री, श्याम चंद लाल नेगी दामोदर थपलियाल के निबंध प्रकाशित हुए .
डा विनय डबराल के गढ़वाली साहित्यकार पुस्तक में रमा प्रसाद घिल्डियाल, श्याम चंद नेगी, चक्रधर बहुगुणा के भाषा सम्बन्धी लेखों का भी उल्लेख है
अबोध बंधु बहुगुणा, डा नन्द किशोर ढौंडियाल व भीष्म कुकरेती ने कई लेख भाषा साहित्य पर प्रकाशित किये हैं जो समालोचनात्मक लेख हैं ( देखें भीष्म कुकरेती व अबोध बन्धु बहुगुणा का साक्षात्कार , चिट्ठी पतरी २००५ , इसके अतिरिक्त भीष्म कुकरेती, नन्द किशोर ढौंडियाल व वीरेंद्र पंवार के रंत रैबार, खबर सार आदि में लेख )
दस सालै खबर सार (२००९) पुस्तक में भजन सिंह सिंह, शिव राज सिंह निसंग, सत्य प्रसाद रतूड़ी , भ.प्र.नौटियाल, वीरेंद्र पंवार, भीष्म कुकरेती, डा नन्द किशोर ढौंडियाल, विमल नेगी के लेख गढवाली भाषा साहित्य विषयक हैं.
डा अचलानंद जखमोला के भी गढवाली भाषा वैज्ञानिक दृष्टि वाले कुछ लेख चिट्ठी पतरी मे प्रकाशित हुए हैं.
पत्र -पत्रिकाओं में स्तम्भ
खबर सार में नरेंद्र सिंह नेगी के साहित्य व डा शिव प्रसाद द्वारा संकलित लोक गाथा ' सुर्जी नाग' पर लगातार स्तम्भ रूप में समीक्षा छपी हैं
रंत रैबार ( नवम्बर-दिस २०११) में नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की क्रमिक समीक्षा इश्वरी प्रसाद उनियाल कर रहे हैं . यह क्रम अभी तक जारी है
चिट्ठी पतरी के विशेषांकों में समीक्षा
गढवाली साहित्य विकास में चिट्ठी पतरी ' पत्रिका का अपना विशेष स्थान है. चिट्ठी पतरी के कई विशेषांकों में समालोचनात्मक/ समीक्षात्मक / भाषासाहित्य इतिहास/ संस्मरणात्मक लेख /आलेख प्रकाशित हुए हैं.
लोक गीत विशेषांक ( २००३) में डा गोविन्द चातक, डा हरि दत्त भट्ट, चन्द्र सिंह राही, नरेंद्र सिंह नेगी, आशीष सुंदरियाल, प्रीतम अप्छ्याँण व सुरेन्द्र पुंडीर के लेख छपे .
कन्हैया लाल डंडरियाल स्मृति विशेषांक (२००४) में प्रेम लाल भट्ट, गोविन्द चातक, भ. नौटियाल, ज.प्र चतुर्वेदी, ललित केशवान, भीष्म कुकरेती, हिमांशु शर्मा, नथी प्रसाद सुयाल के लेख प्रकाशित हुए
लोक कथा विशेषांक ( २००७) में भ.प्र नौटियाल, डा नन्द किशोर ढौंडिया, ह्मंशु शर्मा, अबोध बंधु बहुगुणा, रोहित गंगा सलाणी , उमा शर्मा, भीष्म कुकरेती, डा राकेश गैरोला, सुरेन्द्र पुंडीर के सारगर्भित लेक छपे.
रंगमंच विशेषांक ( २००९) में भीष्म कुकरेती, उर्मिल कुमार थपलियाल, डा नन्द किशोर ढौंडियाल, कुला नन्द घनसाला , डा राजेश्वर उनियाल के लेख प्रकाशित हुए
अबोध बंधु स्मृति विशेषांक ( २००५ ) में भीष्म कुकरेती, जैपाल सिंह रावत , वीणा पाणी जोशी, बुधि बल्लभ थपलियाल के लेख प्रकाशित हुए
भजन सिंह स्मृति अंक ( २००५) में डा गिरी बाला जुयाल, उमाशंकर थपलियाल, वीणापाणी जोशी, के लेख छपे.
उपरोक्त आलोचनात्मक साहित्य के निरीक्षण से जाना जा सकता है कि 'गढवाली आलोचना के पुनरोथान युग की शुरुवात में अबोध बंधु बहुगुणा , भीष्म कुकरेती, निरंजन सुयाल ने जो बीज बोये थे उनको सही विकास मिला और आज कहा जा सकता है कि गढवाली आलोचना अन्य भाषाओँ की आलोचना साहित्य के साथ टक्कर ल़े सकने में समर्थ है.
पुस्तक भूमिका हो या पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा हो गढवाली भाषा के आलोचकों ने भरसक प्रयत्न किया कि समीक्षा को गम्भीर विधा माना जाय और केवल रचनाकार को प्रसन्न करने व पाठकों को पुस्तक खरीदने के लिए ही उत्साहित ना किया जाय अपितु गढवाली भाषा समालोचना को सजाया जाय व संवारा जाय.
गढवाली समालोचकों द्वारा काव्य समीक्षा में काव्य संरचना , व्याकरणीय सरंचना में वाक्य, संज्ञा , सर्वनाम, क्रिया, कारक, विश्शेष्ण , काल, समस आदि ; शैल्पिक संरचना में अलंकारों, प्रतीकों, बिम्बों, मिथ, फैन्तासी आदि ;व आतंरिक संरचना में लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना आदि सभी काव्यात्मक लक्षणों की जाँच पड़ताल की गयी है. जंहाँ जंहाँ आवश्यकता हुयी वहां वहां समालोचकों ने अनुकरण सिद्धांत, काव्य सत्य, त्रासदी विवरण, उद्दात सिद्धांत, सत्कव्य, काव्य प्रयोजन, कल्पना की आवश्यकता, कला कला हेतु , छंद, काव्य प्रयोजन, समाज को पर्याप्त स्थान, क्लासिक्वाद, असलियत वाद, समाजवाद या साम्यवाद, काव्य में प्रेरणा स्रोत्र , अभिजात्यवाद, प्रकृति वाद, रूपक/अलंकार संयोजन , अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद, काव्यानुभूति, कवि के वातावरण का कविताओं पर प्रभाव आदि गम्भीर विषयों पर भी बहस व निरीक्षण की प्रक्रिया भी निभाई . कई समालोचकों ने कविताओं की तुलना अन्य भाषाई कविताओं व कवियों से भी की जो दर्शाता है कि समालोचक अध्ययन को प्राथमिकता देते हैं . गद्य में कथानक, कथ्य, संवाद, रंगमंच प्र घं विचार समीक्षाओं में हुआ है. इसी तरह कथाओं, उपन्यासों व गद्य की अन्य विस्धों में विधान सम्मत समीक्षाए कीं गईं
संख्या की दृष्टि से देखें या गुणात्मक दृष्टि से देखें तो गढवाली समालोचना का भविष्य उज्जवल है.

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