चुनगेर ,चबोड़्या -चखन्यौर्या -भीष्म कुकरेती
(s =आधी अ = अ , क , का , की , आदि )
मीन जब व्यंग्य पढ़ण शुरू कौर छौ त इंदिरा गांधी मा बि कुछ हद तक ईमानदारी छे , शरम -ल्याज छे , वा कति बथों से झसकदी बि छे। वै बगत बेइमान कम छा तो इमानदारी की बड़ी पूछ छे तो हरी शंकर परसाई , शरद जोशी , लतीफ घोंघी बढ़िया लिखदा छा।
जब मीन गढ़वळि मा व्यंग्य लिखण शुरू कार तो समाज अर राजनीति मा इमानदारी , निष्ठा , नीति की कीमत छे तो व्यंग्य लिखण भौत सरल छौ। तब नेता बेशर्मी की हद बि शरम से तोड़दा छा तो वूंकी बेशरमी पर लिखण सरल छौ।
अचकाल व्यंग्य लिखण सबसे कठण काम ह्वे गे। हास्य लिखण मा ऑसंद आंद।
मैरेडिथ का अनुसार व्यंग्यकार नैतिकता कु ठेकेदार च जु समाज मा फैलीं गंदगी कीच -काच , गंदगी साफ़ करद। याने कि गंदगी कम हूंद तो साफ़ करण सरल हूंद , गंदगी या कीचड़ अलग से दिख्यांदि हो तो व्यंग्य लिखे सक्यांद पण जब सरा चौक ही कीचड की नींव पर खड़ो हो तो कीचड़ या गंदगी साफ़ कनकै करण ? इन मा व्यंग्य कनकै लिखण ?
सदर लैंड कु बुलण च कि व्यंग्य सामाजिक बुराइयों का असली रूप दिखांद । पर यदि समाजन बुराइयुं ही तैं अपण जीवन यापन कु आधार बणै याल तो अब व्यंग्य क्यां पर लिखण ? जब सबि लोग बुराइ तैं भलो मानणा छन तो व्यंग्यकार का पास लिखणs कुण कुछ बच्युं इ नी च।
चुनगेर लिखाड़ हरी शंकर परसाई कु मानण छौ कि व्यंग्य जीवन की विसंगतियों , मिथ्याचारों अर पाखंडो की आलोचना करद। पर जब समाज का आदर्श ही बिसंगति , मिथ्याचार , पाखंड ह्वे जावन तो व्यंग्यकार कब तलक मुंड फोड़ल ?
चखन्योरा लिख्वार शरद जोशी व्यंग्य तैं अन्याय , अनाचार , अत्याचार का विरुद्ध हूंद पण जब समाजन अन्याय , अनाचार , अत्याचार तैं ही जीवन शैली बणै दे हो तो इन मा व्यंग्य कै पर लिखण अर कैकुण लिखण ?
चबोड्या कलमदार रवींद्र त्यागी न बोली छौ कि व्यंग्य कु काम कुरीतियुं क भंडाफोड़ करण च पर जब हमर समाजन कुरीतियों तैं ही जिंदगी को मकसद बणै याल तो भंडाफोड़ क्यांक करण अर किलै करण ?
व्यंग्य अमर कोश का कोशकार शंकर पुण तांबेकर बुल्दन बल जख अन्याय , शोषण , अत्याचार , … ब्यूरोक्रेसी हो उख व्यंग प्रभावशाली हूंद पर जब पूरो समाज ही अन्याय, शोषण , सिफ़ारसबाद , जातिबाद , भाई भतीजाबाद , दलबाद , तैं ठिकाणा दीणु ह्वावो वै समाज मा व्यंग्य की अहमियत ही ख़तम ह्वे जांद तो इनमा व्यंग्य लेखिक क्या फायदा ? पूरा का पूरा समाज अन्याय, शोषण , सिफ़ारसबाद , जातिबाद , भाई भतीजाबाद , दलबाद को समर्थक ह्वे जावो तो व्यंग्य की तो ऐसी तैसी होली कि ना ?
व्यंग्यकार समाज को ही अंग -प्रत्यंग हूंद। जब समाज ही संवेदना शून्य ह्वे जावो तो अवश्य ही व्यंग्यकार भी संवेदनाहीन ह्वे जांद अर फिर इन मा मै सरीखा व्यंग्यकार बि पलायनवादी साहित्य लिखण मा ही फैदा चितांद !
Copyright@ Bhishma Kukreti 28 /2/2014
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