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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Wednesday, May 18, 2011

पहाड़ी गीतों में अश्लीश्ता से संस्कृति सर्मशार

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देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड की संस्कृती व परम्परा को भले ही यहाँ के लोक गायकों द्वारा खूब प्रचारित किया गया हो लेकिन कुछ गवेये द्वारा यहाँ की संस्कृती व बहु बेटियों को शर्मशार करके रख दिया है.
उत्तराखंड के कुछ लोकगायकों द्वारा अपने गीतों के माध्यम से यहाँ की बहु बेटियों को " फुर्की बांध" " लबरा छोरी " " शिल्की बांध " " चकना बांध " " पटाखी " सहित कई अन्य उत्पतांग शब्द देकर अपमानित किया जा रहा है. इन गीतों को इन्टरनेट, शादियों एवं सांस्कृतिक कार्यकर्मों द्वारा कुछ ज्यादा ही प्रचारित किया जा रहा है. ऐसे में तो यही समझा जा सकता है की इस देवभूमि में महिलाओं की शायद क़द्र अब कम होने लगी हैं. आज हर संस्थावों में महिलाओं को आगे बढ़ने की बात भले ही की जा रही हो लेकिन स्वयं सेवी संस्था भी इन गीतों में मस्त होकर झूम रहे हैं.परन्तु इन गानों पर न तो अंकुश लगाया जा रहा है और न ही कोई ठोस कदम उठाया जा रहा है

इन गायकों को अपने शो के लिए आमंत्रित किया जा रहा है. और वो " फुर्की बांध" " लबरा छोरी " " शिल्की बांध " "" छकना बांध " " पटाखी " सहित कई अन्य उत्पतांग शब्दों से भरे गलियों के अर्थ वाले गाने गाकर फुर्र हो जाते हैं. देवभूमि में ऐसे शब्दों को गाली समझा जाता है. यह बात जानने के बावजूद भी ये गवेये ऐसे गीत बनाना और गाना अपनी शान समझते हैं या यूँ कहिये कि घटिया गीतों के माध्यम से अपनी रोज़ी रोटी चला रहे हैं

ऐसे में यही समझा जा सकता है की पहाड़ कि बहू बेटियों की सुन्दरता कि तारीफ में यह शब्द " फुर्की बांध" " लबरा छोरी " " शिल्की बांध " " चकना बांध " " पटाखी " हमारे लोगों ने स्वीकार कर लिए हैं

अगर एसे गीतों पर हम लोगों द्वारा अंकुश न लगाया गया तो जल्दी ही हमारा संगीत भोजपुरी कि तरफ अग्रसर हो जायेगा और बाहरी समाज में हम लोगों कि अहमियत भी..... आप लोग बहार समझते हैं

1 comment:

  1. बदले परिवेष में पहाड़ी गीतों में छिछोरापन का प्रयोग बाजार की मांग के अनुसार हो रहा है. हमारा समाज किस रूप में स्वीकार करता है देखने की बात है. जो हो रहा है उचित नहीं. घटिया गीतों के माध्यम से अपनी रोज़ी रोटी कमाना और चलाना...चिंतनीय है.

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