दिखावा की रैगि,
बद्लिगी सब्बि धाणि,
अर छूटिगी छट,
मछोई का हाथन जन,
माछी की तरौं,
कुजाणि कथैं छ,
बग्दु जाणी.
जै मुल्क का मन्खी,
छोड़ि देन्दा छन,
अपणी संस्कृति,
अर रौ रिवाज,
ऊधार ली लेन्दा छन,
बिराणि संस्कृति,
जन होन्दि छ,
शरील मा खाज.
सोचा! क्या यू सच छ,
नितर लेवा संकल्प,
अपणि संस्कृति का,
संचार का खातिर,
अपणा मन मा,
किलैकि हम ढुंगा निछौं,
वन्त ढुंगा पहाड़ का,
हमसी भला छन,
ऊँकू मन नि बदली,
हमारी तरौं.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २७.३.२०१०)
(पहाड़ी मन मेरा...नहीं बदला....आज भी)[/
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