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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, April 1, 2010

अपना बचपन

तब होती थी मन में उमंग'
दौड़ लगाते डगड़्यौं के संग,
भले लगते थे ऋतुओं के रंग,
मन रहता था मस्त मलंग.

ऊछाद करने पर लगाते थे,
ब्वै बाब बदन में कंडाळी,
खूब खेलते तप्पड़ों में,
इधर उधर मारते फाळी.

सबसे सुन्दर लगते थे,
बचपन में बुरांश के फूल,
निहारते थे हिमालय को,
फिर सब कुछ जाते भूल.

काफळ खूब खाए वन में,
सबसे सुन्दर लगता चाँद,
बोझा ढ़ोते दूर से जब,
दुखने लगती थी काँध.

घुगती, घिंडुड़ी, हिल्वांस जब,
अपना गीत सुनाती थी,
पहाड़ पर फैली हरियाली,
मन को खूब बहती थी.

बचपन में हल खूब लगाया,
बैलों ने तो खूब दौड़ाया,
बजती थी जब स्कूल की घंटी,
घर जाकर फिर बस्ता उठाया.

कौथिग जब आते थे,
मन को बहुत भाते थे,
मिलती थी जब बेटी ब्वारी,
रोते और रुलाते थे.

नमक लेने उस ज़माने,
बद्रीनाथ रोड पर जाते थे,
लौटते थे रात होने पर,
थक के मारे सो जाते थे.

गाँव और समाज में,
बड़ा प्रेम होता था,
दुःख हो या ख़ुशी की बात,
साथ सबका होता था.

प्यारा बचपन बीत गया,
अब लौटकर नहीं आएगा,
दिलाई याद "मेरा पहाड़" पर,
हर कोई यही बताएगा.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २५.३.२०१०)

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