औजि जब बूढा हो जाता है,
पिता के अशक्त हो जाने पर,
उसके मासूम बेटे,
अपने पिता की तरह,
बजाते हैं उत्तराखंड का,
पारम्परिक ढोल और दमाऊ,
गांव-गांव जाकर,
शुभ कार्यों में.
अगर बच्चे मासूम हों,
तो गले में बस्ते की जगह,
ढोल और दमाऊ लटक जाता है,
और बजाते हैं गाँव गाँव,
अपने घर को चलाने के लिए,
डडवार और पैसे के लिए,
जिससे जलता है घर का चूल्हा,
पेट की आग बुझाने के लिए.
टिहरी जिले के,
कीर्तिनगर ब्लाक के,
कंटोली गांव के रहने वाले,
मासूम मंजीत और आशीष,
स्कूल जाने के बजाय जाते हैं,
ढोल और दमाऊ बजाने,
जब घर का चूल्हा,
संकट में होता है.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १७.३.२०१०)
निवास: प्यारे पर्वतों से दूर
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