जिंदगी रोशन करने के लिए,
सपने साथ लिए,
एक दिन छोड़ दिया मैंने भी,
पर्वतों की गोद में बसा,
अपना प्यारा गाँव.
मैं समय-समय पर जाता रहा,
जबकि मेरे गाँव में,
आज स्थाई रूप से,
पँहुच चुकी है,
बिजली, सड़क और पानी,
एक प्राइमरी स्कूल भी.
लेकिन! रुका नहीं सिलसिला,
गाँव को अल्विदा कहने वालों का,
रह गए सिर्फ कुछ मवासे,
आज जिनकी वजह से,
गाँव के कुछ घरों में,
अभी नहीं लगे ताले.
सोचता था रौनक रहेगी,
गाँव की चौपाल में,
खेत और खाल्याण में,
पानी के धारे में,
बरगद और पीपल के नीचे,
धारे के निकट तप्पड़ में,
लगते रहेंगे मंडाण,
संस्कृति की झलक और,
ब्यो बारात की रसाण.
गाँव ने कभी नहीं कहा,
तुम लौटकर मत आना,
शहर ने भी नहीं बुलाया,
गाँव में बिखरा है बचपन,
फिर भी न जाने क्योँ?
प्रवासी ग्रामवासिओं ने,
अपने गाँव को भुलाया,
कवि "ज़िग्यांसु" भूल न सका,
गाँव की याद ने सताया भी,
कसक उठी और रुलाया.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १०.३.२०१०)
गढ़वाल की गाड़ी से बागी-नौसा, चन्द्रबदनी से दिल्ली.
veru nice
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