प्रियतमा बिन उदास होता है बसन्त
ढलका कर ओंस की बूंद रोता है बसन्त
सुबह उडारी भरते पंछी भी लौट आते हैं
सांझ में खुद को अकेला पाता है बसन्त
खिलखिलाने को होती है जब भी जोर-जबर
हंसने से खुद को रोक जाता है बसन्त
इस आबो-हवा में कैसे जीने का मन करे
आसमान को ताकने पर डर जाता है बसन्त
ऐसे लाल, हरे, पीले, नीले होने से क्या फायदा
शायद आयेगी बहार ‘धनेश’ इन्तजार में रहता है बसन्त॥
Copyright@ Dhanesh Kothari
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