जितनी तेजी से मैं
चढ़ जाता हूं
गांव की उकाळ
बगैर हांफे हुए
विकास हांफ रहा होता है
सड़क के किनारे
लुढ़के बिजली के पोलों के साथ
ताक रहा होता है
बैठकर ट्रांसफार्मर की तरह उकाळ
पहाड़ी शहरों में
फर्राटे के साथ दौड़ता विकास
जब भी मजबूर किया जाता है उसे
‘एक-जुम्म’ की बजाय
किश्तों में पहुंचता है पहाड़ पर
तरस आता है गांव को
उसकी विवशता पर
और फिर
उठ जाती है एक और मांग
पैदल चलने में तकलीफ होती है उसे
एक सड़क बना दी जाय
जो, पहुंचे सीधे सड़क से गांव तक
विकास! तुम जब भी जाओगे पहाड़
जब भी चढ़ोगे किसी गांव की ‘उकाळ’
बगैर हांफे नहीं चढ़ पाओगे
हांफना तो होगा
यह भी तय मानों।
Copyright@ Dhanesh Kothari

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