एक बार राजधानी के सबसे बड़े मोबाइल टावर में कौवो का सेमीनार हुआ। मुद्दा था वर्तमान हालातों का केसे सामना किया जाय ।
पहले काग देवता के नाम से हमें पूजा जाता था । रोज सुबह लोग अपनी छतों पर कुछ न कुछ खाने को रख ही देते थे । अब तो लोंगों के पेट खुद ही इतने बढ़ गए हैं कि उनका पेट ही नहीं भरता ।
जितना मिल जाय उतना ही कम । कूड़ेदान में भी फेंकते हैं तो सिर्फ पोलीथीन की पोटली । उसे भी खोलो तो पोलीथीन के अन्दर पोलीथीन । आखिरी में भी निकलता है रबर....पल्स्टिक...और भी पता नहीं क्या-क्या । अब तो उन्हें छूने का भी मन नही करता ।
व्रत - त्यौहार तो लोग जैसे भूल ही गए । अच्छा खाना खीर..... घी...... पकोड़ी........ पूड़ी......... सब्जी.....। मुह में पानी आ जाता है...।
अब तो कई दिन पानी भी नसीव नहीं होता। नहरों के ऊपर गाड़ियाँ दौड़ रही हैं । नानियाँ कबाड़ से पटी पडी हैं । सरकारी नलों का तो यह हाल है कि लम्बी-लम्बी लाइनें ....। इंसानो का ही नंबर नहीं आता .....।
पेड़ों के झुरमुट में दिल खोलकर कांव – कांव.. ...... भी नहीं कर सकते । रोज कट रहें हैं । मकान पर मकान बन रहें हैं ।
न अन्न न पानी न सत्कार..........
जरा किसी के घर के आगे कांव – कांव..... करो तो खाने दौड़ता है....
सेमीनार का पहला चरण तो योंही रोने धोने में बीत गया । दुसरे चरण में था कैसे इन बिषम परिस्थितियों का सामना किया जाय पर आधारित प्रयोग ।
पहले प्रयोग का बिषय था होशियारी जिसे एक ख़ास कौवे ने तैयार किया था । अपनी होशियारी से उसने देश बिदेश के कई सेमिनारों में भागीदारी निभाई। बिषय पर आधारित एक घडा सामने रखा गया, जिसके तले में कुछ पानी था । सभी से कहा गया पानी पीना है पर कैसे ........?
सबने कहा कौन नहीं जनता चतुर कोवे की कहानी । सभी एक साथ उड़ने को तैयार हो गए । देखो वह तो एक ही कौआ था इसलिए एक-एक कर पूरा करो । एक सयाना कौआ झटपट आगे आया... ये तो बड़ा आसान है....., मैं अभी पूरा करता हूँ इसे । ठीक है। वो फटाफट उड़ गया। लेकिन काफी देर बाद वापस आया अपनी चोंच पर एक छोटा सा पत्थर लेकर। क्यों भई इतनी देर बाद क्यों लौटे। एसे तो तुम दस दिन में भी नहीं भर पावोगे इसको। मैं क्या करता भला दूर-दूर तक कंही पत्थरों का नामो निशान ही नहीं नजर आता। जहाँ देखो ईंट ही ईंट।
तभी एक नौजवान कौआ जिसके सर के बाल खड़े दोनों पर ढीले अजीव सी चाल में आगे बढ़ा। सभी
उसको देख एक साथ हंस पड़े। यह क्या? कल का बच्चा ! ठीक से तो चलाना आता नहीं ! नौजवान ने इधर उधर नजर दौडाई और कुछ दूर से एक कागज़ की गोली सी उठा कर लाया। इससे पानी पिएगा.... हा....हा.......... । जरा दिखा तो दो.... क्या लिखा है इसमे। उसने सबको कागज़ दिखाया। जिस पर लिखा था पांच दिन में कंप्यूटर सीखें । हा... हा....हम और कंप्यूटर। आजा बेटा ! इधर आजा ! तेरे बस का कुछ नहीं ।
नौजवान ने गर्दन झटकी पानी का जायजा लिया और नीचे झुककर पानी के आस - पास चोंच मारनी शुरू कर दी । चंद मिनटों में ही पानी हाशिल । उसने खूब पानी पिया। और फिर कागज की गोली बनाकर उसे मटके में ठूंस शान से खडा हो गया। सबकी आँखें फटी की फटी रह गयी । अचानक नौजवान की नजर टावर में चढ़ते किसी पर पडी । भागो.....भागो..... । सबके सब समिनार अधूरा छोड़ उड़ गए। दरअसल जिस टावर पर सेमीनार चल रहा था उस पर मालिक के ज्यादतियों से तंग आकर अपने हक़ के लिए एक बिल्ली चढ़ गयी।
विजय कुमार "मधुर"
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