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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, September 29, 2009

खिड़की का मरना

मेरे घर की , वो खिड़की
जिस से छनकर कभी
सूरज की किरणे अंदर आया करती थी
अब नही रही
वो मर गई है !

वो आज तक
अकेले अकेले सब सहती रही
अपना दर्द , मकान का दर्द
जो --------
खिड़की का मरना
मेरे घर की , वो खिड़की
जिस से छनकर कभी
सूरज की किरणे अंदर आया करती थी
अब नही रही
वो मर गई है !

वो आज तक
अकेले अकेले सब सहती रही
अपना दर्द , मकान का दर्द
जो --------
पल -पल , झर- झर कर
टूटता रहा / बिखरता रहा
बिना हमारी देख रेख के !

पुरखो का वो मकान
जिसमे मै,मेरे बाबा, मेरे दादा जी
पैदा हुए , पले ,बड़े हुए
जिसके आगन में हमने
खेलना सीखा .........
जिसकी दरो दीवारों से सटकर
चलना सीखा ---
और ख़ास कर उस खिड़की के
साथ मिलकर
हमने खेली थी आँख मिचोलिया
सूरज से ,समये से ,हवाओं से
वो अब नही रही
वो मर गई ....!

उसकी मौत ये से ही नही हुई
उसे मार दिया मिलकर
मैं, मेरे घरवालो ने
उसको अक्केला छोड़ कर
उसे अन देखा कर !

पराशर गौड़
कनाडा .. न्यू मार्केट ३ बजे सयाम २८ स्सित्म्बर ०९ पराशर गौड़

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