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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, September 8, 2009

कहीं एक कोने में


यह कविता उन परिवारों को सपर्पित है जो भरे-पूरे परिवार में होने के बाद भी हमेशा बेवसी, रूखापन और भय के माहौल से घिरे रहते हैं. यह देखकर मन को बेहद पीडा होती है की क्यों आज भी हमारे समाज के कुछ परिवारों के कुछ लोग तानाशाह बन बैठते हैं और अच्छे भले परिवार को नारकीय जीवन जीने को मजबूर करते हैं. अपने ही परिवार के साथ अनजानों सा व्यवहार और उनकी भावनाओं से कुठाराघात करना कहाँ तक उचित है. जिन माँ बाप ने उनकी खातिर अपनी सारी खुशियों की बलि दे दी उनकी भावनाओं से खेलकर उन्ही दुःख पहुँचाना क्यों यैसे लोगों को अच्छा लगता है. समझ से परे है. अपने परिवार को दुखी कर बाहर उधर-उधर भटकते-फिरते है और बाहर शांति के नाम पर अपने घर में अशांति का माहौल बनाये रखते है! जब भी एसे परिवार मिलते हैं तो मन विचारमग्न हो जाता है और सोचती हूँ कि ...............


भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद
जब कभी किसी की बेवसी, बेचारगी
सिमटी-सिमटी खुशियाँ दिखती हैं
तो दिल को पहुँचती है गहरी ठेस
और मन सोचने को होता है मजबूर
कि क्यों कोई अपने ही परिवार में
बन जाता है तानाशाह
सबको नाचता है अपनी अँगुलियों पर
हांकता है मार-कूट कर
निरीह प्राणी की तरह
डराता-धमकता है दुश्मन समझकर

अपनी ख़ुशी चाहता है
परिवार की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी नहीं देखता
दर-ब-दर भटकता फिरता है
अपनी खुशियाँ तलाशता हुआ
परिवारों में जहर घोलता है
अपनेपन का ढोंग रचकर
माना कि कोई भी स्वतंत्र है
अपनी जिंदगी जीने के लिए
बेरोक-टोक घूमने -फिरने के लिए
कहीं भी कुछ भी खाने-पीने के लिए
या गिरते- पड़ते, लुदुकते, भटकते हुए
देर-सबेर अपने घर लौटने के लिए

लेकिन इससे पहले
क्यूँ वह यह भूल जाता है
कि दरवाजे पर भूखी-प्यासी पत्नी
बेचैनी से इन्तजार में खड़ी होगी
बच्चे भी दिन भर की पढ़ाई, मस्ती के बाद
अपनी आपस की बाते सुनाने के लिए
उत्तावाले होकर जल्दी-जल्दी अपना होमवर्क कर
अपनी मन पसंद चीज़ आने की प्रतीक्षा में
खुसुर-फुसर कर बार-बार दरवाजे की ओर
मासूमियत से देख रहे होंगे
और बूढे माँ-बाप बेसब्री से आज भी
शंका-आशंकाओं से घिरे
मोह ममतावस, निरीह आखों से
एक मासूम सा बच्चा समझ
दुनिया की भीड़ में भटकने का डर
अपनी बूढी, लाचार साँसों में समाये हुए
तेज होती धडकनों को रोक
बेचैन होकर राह ताक रहे होंगे
मत भूलो कि सिर्फ अपनी ख़ुशी चाहने वाले
जिंदगी में कभी सुखी नहीं रह पाए है
वे अपने ही परिवार, समाज में एक दिन

धिक्कार दिए जाते हैं
और सबके द्वारा छोड़ दिए जाते हैं
लावारिश की तरह
इधर-उधर भटकने के लिए
या कोई जिन्दा लाश की तरह
सड़ने-पड़ने की लिए
कहीं एक कोने में

Copyright @Kavita Rawat, Bhopal, 1 Sept, 2009

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