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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, July 28, 2011

किरांण

मिथये अचांणंचक से ब्याली सोच प्वड़ी गईँ
किल्लेय कि कुई कणाणु भी छाई
फफराणु भी छाई
द्वी चार लोगौं का नाम लेकि
कबही छाती भिटवल्णु कबही रुणु भी छाई
बगत बगत फिर उन्थेय सम्लौंण भी लग्युं छाई
तबरी झणम्म से कैल
म्यार बरमंड का द्वार भिचौल द्यीं
सोचिकी मी खौलेय सी ग्युं
कपाल पकड़ी कि अफ्फी थेय कोसण बैठी ग्युं
सोच्चण बैठी ग्युं कि झणी कु व्हालू ?
मी कतैइ नी बिंगु
मिल ब्वाल - हैल्लो हु आर यू ?
मे आई हेल्प यू ?
वीन्ल रुंवा सी गिच्चील ब्वाळ
निर्भगी घुन्डऔं - घुन्डऔं तक फूकै ग्यो
पर किरांण अज्जी तक नी ग्याई ?
मी तुम्हरी लोक भाषा छोवं
मेरी कदर और पछ्याँण
तुम थेय अज्जी तक नी व्हाई ?
सुणि कि मेरी संट मोरि ग्या
और मेरी जिकुड़ी थरथराण बैठी ग्या
मी डैर सी ग्युं
और चदर पुटूग मुख लुका कि
स्यै ग्युं चुपचाप से
और या बात मिल अज्जी तक कैमा नी बतै
और बतोवं भी त कै गिच्चल बतोवं ?
कन्नू कै बतोवं ?
कि मी गढ़वली त छोवं ?
पर मिथये गढ़वली नी आँदी ?
पर मिथये गढ़वली नी आँदी ?


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी ( सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार -सुरक्षित, )
अस्थाई निवास: मुंबई /सहारनपुर
मूल निवासी: ग्राम महर गावं मल्ला ,पट्टी कोलागाड
पोस्ट-तिलखोली,पौड़ी गढ़वाल ,उत्तराखंड

1 comment:

  1. i am proud of u u are much far from distance
    but very close for heart in garhwal
    keep it up weldon

    ReplyDelete

आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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