डा बलबीर सिंह रावत
हस्त्शिप और उत्तराखंड
भारत के हस्तशिल उत्पाद दुनिया में मशहूर हैं। उत्तराखंड में भी कई विशिष्ट उत्पाद हाथों से घर पर ही बनाये जाते रहे हैं . आज के व्यावसायिक युग में उन परंपरागत उत्पादों की सार्थकता समय की मांग के हिस्साब से असामयिक हो गयीं हैं और कोई नयी पद्धति नहीं उत्पन्न हो सकी। हस्तशिल्प को उद्द्योग के स्तर पर चलाने के लिए तीन बातें महत्वपूर्ण हैं: 1.वस्तु का आकर्षण और उपयोगिता, 2. उत्पादक का कौशल स्तर, और 3. उत्पादों की माँग।
शुरू करते हैं मांग से।हस्तशिल्प के बाजार स्थानीय होते हैं, क्षेत्रीय होते हैं और राष्ट्रीय/अन्तराष्ट्रीय होते हैं। हर बाजार की अपनी अपनी पसंद होती है और उसी पसन्द के अनुरूप उत्पाद बनाए जाते हैं। बर्तमान में उत्तराखंड में धार्मिक तथा सैलानी प्रयटकों की भारी संख्या (पंद्रह लाख के लगभग प्रति वर्ष) आती है , बड़े शहरों में क्राफ्ट मेले लगते हैं जिनमे सारे देश के शिल्पी भाग लेते हैं और लोग जम कर खरीद दारी करते हैं। बिडम्बना है की उत्तराखंड के अपने उत्पाद 10% भी नाहे होते इन मेलों में। तात्पर्य है की हमारे क्राफ्ट उद्दोग को प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ना पड़ेगा तभी उद्द्योग पनपेगा।
उत्पादक का कौशल। मांग में केवल वस्तु ही नहीं होती है , उसकी उपयोगिता, गुणवत्ता,और आकर्षण ही क्रेता को लुभाता है, उपभोक्ता की क्या पसंद है और वोह कितना खर्च कर सकता है , यह जानना जरूरी है। फिलहाल ऐसे सर्वे हुए नहीं हैं, लेकिन बर्तमान क्राफ्ट मेलों में ग्राहक पसंद का अनुमान लगाया जा सकता है . पसंद आने वाले उत्पाद उन के है, लकड़ी के हैं, धातु के हैं, रुई और कृत्रिम धागों (नायलौन ) के हैं, स्ताहानीय रेशों, बांस रिंगाल के, और खाद्य पदार्थों से बने उत्पाद हैं। जब प्रतिस्प्र्धा का सवाल आता है तो उत्तराखंड के पदार्थ कुछ पिछड़े से नजर आते हैं। इसलिए आवश्यकता है
उत्पादकों के कौशल बृद्धि की।
उत्पादों की मांग। जैसे जैसे लोगों की आमदनी बढ़ती है उनकी मांगे तरह तरह के उत्पादों के लिए भी बढ़ती जाती है। सैलानियों की मांग होती है, यादगार के वस्तुओं की। जैसे तीर्थ स्थानों के विशिष्ट प्रतीतात्मक फोटो,लकड़ी, धातु पर उकेरी गयी प्रतिछाया, स्थानीय विशिष्ट उत्पाद जैसे रिंगाल की खूबसूरत कंडी, पिटारी , फूलों की (बुरांस, प्यूलीं,हिन्सोले किन्गोडों के फूलौं की कढाई वाले रुमाल, दीवाल में लटकाने के कपडे जो ऊनी, सूतो, भंगुले, स्योलू के धागों से बने हों। इनही मोतिफों से कढाई/छपाई से सुसज्जित थुलमे, कम्बल,शौल, कमीज के कपडे,स्वेटरें, दस्ताने, इत्यादि इत्यादि। असीमित सम्भावनाएं है धातु में उत्तराखंडी शिल्पियों को ताम्बे, कांसे और लोहे के उत्पाद बनाने में माहिरता है, अगर कहीँ यह कौशल बचा हुआ है तो। धातु में वजन के कारण इसका डिजाईन और आकर्षक स्वरुप महता रखता है। इसके लिए शोध होना चाहिए।
कुछ नए क्षेत्र भी हो सकते है, जैसे बिजली (स्येल),चाभी से चलने वाले अद्भुत करतब दिखाने वाले महंगे खिलौने, तीर्थ स्थानों में होने वाली महापूजा/आरती के सी डी, पैगाम देने वाले बोलते ग्रीटिंग कार्ड, साहसिक खेलों के परिचयात्मक विडियो इत्यादि इत्यादि।
अंतिम आवश्यकता .सशक्त, सामर्थ वान, सक्रिय तंत्र की, जो इस क्राफ्ट उत्पादन की अपार सम्भावना को मूर्त रूप दे सके। उत्तरदायित्व तो सरकार का है, लेकिन सोये हुए हाथी को जगाना मुश्किल काम है। एक सम्भावना है की अगर कुछ समाज सेवी लोग एक सहकारी संस्था बना कर उसे एन जी ओ के रूप में चलाने की पहल करें तो शायद यह क्राफ्ट उद्द्योग घर घर में और लघु उद्द्योग इकाईओं के रूप में पनप सकता है। अगर हर आगंतुक टूरिस्ट औसतन 3000 रुपये का सामान खरीदने के लिए लुभाया जा सके तो हर साल उत्तराखंड में 450 करोड़ रुपये आ सकते हैं यहाँ के श्रम-संसाधन के मूल्य के रूप में।
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