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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, January 7, 2010

नखरा

द,
लुंगी ब्वारी ले नखरा
पुटुग पर बांदी छ क्वे कपड़ा
बुलद
मिथाई पीड उठीगे,
पौड़ी लिकरा ............. !

उफू ...
पोडिगे उबरा
देलिम दे दे धुई
भैर गाडी देनी
गोर बाछुरु डिबरा !

बीकुत कुछ नि ह्वया
अर न हुणु .....
पर सुणम आय कि
भैर भीटर गडद
गोडी गे तुई ...
बियेगी द्वी चार डिबरा ...
द लूगी ब्वारी ले नखरा !


parashar gaur

3 comments:

  1. पहाड़ पर इतना समावेश...पराशर जी ने जो व्यक्त किया है...वास्तव में...श्रेष्ठ है...इसके लिए बधाई..जगमोहन आज़ाद

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  2. (1)
    अनाथ बच्चों के लिए
    ----------------

    आवश्यक तो नहीं कि
    मेरी-तुम्हारी मां भी एक होती
    नालबद्ध होते हम
    जुड़वा भाइयों की तरह...
    आवश्यक तो नहीं कि...
    हमने एक साथ
    घुट्टी नहीं पी
    इतना कम तो नहीं की...
    जब-जब तुम्हारे एकांत में-
    खड़ा था मैं-
    तुम भी मेरे एकांत में खडे थे।
    सुनो भाई...
    जितने बहे तुम्हारे आंसू
    जितनी-जितनी रातों में तुमने
    ढूंढा मां को...
    उतनी-उतनी बार
    रोया मैं भी
    और...रोये मेरे गर्भ में
    असंख्य शिशु-
    मगर...अब हम आंसुओं को दें देगें...
    बादलों को-
    ताकि! बरस वह सकें
    बंजर धरती पर...।

    (2)
    उस पार
    -----

    इस पार
    बस रहा है
    सेटेलाइट शहर
    तेजी के साथ
    जिसमें-
    रिश्ते-नाते-संस्कार
    भाषा-बोली-गीत-संगीत
    रीति-रिवाज
    और भी बहुत कुछ
    बदल रहा है
    तेजी के साथ...।
    और
    उस पार
    नदी के किनारे
    पहाड़ की तलहटी में-
    बसे गांव-घर
    खेत-खलिहान
    पेड़-पौधे-बूढ़ी नम् आंखें
    हो रहे हैं तब्दील खंडहर में
    तेजी के साथ...।

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  3. parasar g is graet kavi hamari shub kamnayen unki sath hai

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आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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