बन जाता जो अगर मैं, कवि सम्मलेन करवाता,
कवि मित्र जैसा कहते, वैसा विकास करवाता.
गंगाजल बोतल बंद करके, पूरे देश में भिजवाता,
पीते लोग ख़ुशी ख़ुशी, उत्तराखंड का राजस्व बढ्वाता.
गाँव गाँव में फल,संतरे, मौसमी के, सघन बाग़ लगवाता,
छोड़ों शीतल पेय पीना, फलों का रस उपलब्ध करवाता.
जो राजस्व आता तो, प्रकृति सरंक्षन्न में लगाता,
केंद्र से जल, जंगल सरक्षण हेतु, राजस्व स्वीकृत करवाता.
प्राकृतिक मिजाज उत्तराखंड का, अगर जो ठीक रहेगा,
आएगा जो भी प्रकृति प्रेमी, कैसा सुन्दर है कहेगा?
उत्तराखंड के प्राकृतिक स्रोतों का, पूरा देश है लाभ लेता,
सोचा है कभी आपने, प्रदूसन्न के सिवा क्या है देता.
आज हिमालय पिघल रहा है, सूख रहा है पानी,
बढ़ रहा है ताप पहाड़ों में, हो गई है भारी नादानी.
उत्तराखंड बना था इस सोच से, रूकेगी वहां जवानी और पानी,
तीव्र सतत विकास पहाड़ में होगा, रुकेगी गांवों की वीरानी.
पहाड़ की जनता जो चाहती, वैसे विकास के काम मैं करता,
ईमानदारी का पालन करते हुए, बद्रीविशाल जी का नाम जपता.
यथार्थ यही है मित्रों,
जैसा पार्टी चाहती, वैसे हँसते और रोते,
घर आई गंगा में, अपने दोनों हाथ धोते,
क्योंकि नेता ऐसा ही करते हैं.....
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयारा "ज़िग्यांसू"
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ग्राम: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल
E-mail: j_jayara@ yahoo.com
10.१२.२००९
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