इस पार
बस रहा है
सेटेलाइट शहर
तेजी के साथ
जिसमें-
रिश्ते-नाते-संस्कार
भाषा-बोली-गीत-संगीत
रीति-रिवाज
और भी बहुत कुछ
बदल रहा है
तेजी के साथ...।
और
उस पार
नदी के किनारे
पहाड़ की तलहटी में-
बसे गांव-घर
खेत-खलिहान
पेड़-पौधे-बूढ़ी नम् आंखें
हो रहे हैं तब्दील खंडहर में
तेजी के साथ...।
जगमोहन "आज़ाद"
बेटियां
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वो बोते हैं बेटे
पैदा होती है...बेटियां
वो मांगते हैं मन्नते
मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरूद्वारों में-
बेटों के लिए-
फिर भी पैदा होती है बेटियां...
वो...संजोते हैं सपने बेटों के
इसके बाद भी पैदा
हो ही जाती हैं बेटियां,
वो...जवान होते देखते हैं-
बेटों को-
लेकिन जवान होती बेटियों में
दिखती हैं मुसीबतें उनको...
वो...जवान होते बेटो में
देखते हैं कल के सपने...
मगर उनका कल संवारती है...बेटियां
वो...फिर भी समेटते हैं...बेटों को
बेटे जवान होकर
ठोकर मार गिराते हैं उन्हें-
तब उनका सहारा बनती हैं...बेटियां
जवान होकर जलायी-छोड़ी जाती है...बेटियां
इसके बाद भी
संवारती हैं,संभालती है-
बुढ़ापे का सहारा बनती है बेटियां
फिर भी वो...
बोते हैं...हर रोज...बेटे...।
- जगमोहन 'आज़ाद'
महानगरों में पहाड़
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महानगरों की भीड़ में
धक्का-मुक्की के बीच
दौड़ता-भागता...पहाड़,
सोचता हैं...चिंता भी करता है
पहाड़ों की,
बातें भी करता है-
इनके हालात के बारे में-
विकास के बारे में
सम्मान के बारे में
रीति-रिवाज-संस्कारों के बारे में,
झुकी कमर...
बूढ़ी नम आंखों के बारे में
और
दफ्तर पहुंचकर
खो जाता है फाइलों में
घर वापसी पर
सब्जी-मण्डी की तरकारियों में
और...उम्र यों ही-
जाती हैं गुज़र...पहाड़ों की
महानगरों में...।
- जगमोहन 'आज़ाद'
धन्यवाद
ReplyDeletejagmohan jiiiiiiiiiiiiiiiii