Roads and Relgions in Kushan era n Haridwar, Bijnor, Saharanpur
Ancient History of Kushanा in Haridwar, History Bijnor, Saharanpur History Part - 191
कुषाण कालीन हरिद्वार इतिहास , बिजनौर इतिहास , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 191
इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
Copyright@ Bhishma Kukreti Mumbai, India 2018
History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur to be continued Part --
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास to be continued -भाग -
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Ancient History of Kushanा in Haridwar, History Bijnor, Saharanpur History Part - 191
कुषाण कालीन हरिद्वार इतिहास , बिजनौर इतिहास , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 191
कुषाण काल में चीन व रोम से व्यापर संबंध शुरू हुए। पूरी अपनी पुस्तक में लिखता है कि व्यापार वृद्धि व साम्राज्य सुरक्षा हेतु अच्छी सड़कें निर्माण की गयीं। सड़कों में सुधार किया गया था , सुपथ बनाये गए थे।
सकल ( सियालकोट ) से प्रतिदिन पाटलिपुत्र तक 500 गाड़ियां जातीं थीं। साकल से श्रुघ्न (सहारनपुर ) से कालकूट कालसी (सहारनपुर -देहरादून प्राचीन सीमा ) से गढ़वाल भाभर होते हुए गोविषाण (काशीपुर ) से अहिच्छत्रा मार्ग था। सोपारा से श्रावस्ती व कशी से तक्षशिला सार्थ चलते थे। राजकीय सुरक्षा के अतिरिक्त लोग अपने साथ पंडित , मार्ग दर्शक भी ले जाते थे। संभवतया पंडित चिकित्सा में भी सहायक होते थे।
सकल ( सियालकोट ) से प्रतिदिन पाटलिपुत्र तक 500 गाड़ियां जातीं थीं। साकल से श्रुघ्न (सहारनपुर ) से कालकूट कालसी (सहारनपुर -देहरादून प्राचीन सीमा ) से गढ़वाल भाभर होते हुए गोविषाण (काशीपुर ) से अहिच्छत्रा मार्ग था। सोपारा से श्रावस्ती व कशी से तक्षशिला सार्थ चलते थे। राजकीय सुरक्षा के अतिरिक्त लोग अपने साथ पंडित , मार्ग दर्शक भी ले जाते थे। संभवतया पंडित चिकित्सा में भी सहायक होते थे।
बांस के पुल - नदियाँ पार करने हेतु बांस के पुल बनाये जाते थे। बड़ी चौड़ी नदियों में नाव से परिहवन होता था। छोटी छोटी नदियों पर बाँध बनाकर नाव चलाने लायक बना दिए गए थे।
हरिद्वार से बद्रीनाथ मार्ग - पुरी अनुसार कुषाण काल से पूर्व ही हरिद्वार से बद्रीनाथ मार्ग से देवप्रयाग होते हुए धार्मिक यात्राएं शुरू हो चुकीं थीं। संभवतया हरिद्वार -बद्रिकाश्रम मार्ग में भी सुधार हुआ होगा। धार्मिक सहिष्णुता
यद्यपि कुषाण कालीन शासक बौद्ध थे तभी भी उनकी मुद्राओं में हिंदी , जैन , देवताओं को समुचित स्थान मिला है जो धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक है।
कुषाण कल म सभी पंथ की देवी देवताओं की मूर्ति निर्मित होतीं थीं।
हरिद्वार में पशुबलि ?
कुषाण युग में वैदिक यज्ञों पशु बलि देने की प्रथा हो सकता है हरिद्वार के मंदिरों जैसे चंडी मंदिर में पशु बलि दी जाती रही होगी। चंडी मंदिर व उत्तराखंड के कई देवी मंदिरों में पशु बलि कुछ समय पहले ही बंद हुईं
विष्णु की नारायण रूप में पूजा
विष्णु की नारायण व वासुदेव रूप में पूजा प्रचलित थी। बद्रिकाश्रम नारायण रूप में प्रचलित था। विष्णु का सहठुजा रूप व कमलासन अधिक प्रसिद्ध हुआ था। ंलराम की भी मूर्तियां इस काल में निर्मित हुईं।
शुंग व कुषाण काल में सबसे अधिक पूजा शिव की होती थी। शिव की पूजा रूद्र , पशुपरी व नाग रूप में पूजा होने लगी थी। मथुरा में कुषाण कालीन अर्धनारेश्वर मूर्ति व चतुर्भुज शिव की मूर्ति मिलीं हैं
शिव को लिंगरूप में भी पूजा होती थी।
हरिदवार -कोटद्वार मार्ग में लल ढांग में पांडुवलाखंडहरों में लिंगधारी मूर्ति मिली थी जिसमे लिंग पर हर गौरी की आकृतियां अंकित हैं (डबराल उत्तराखंड का इतिहास भग -3 पृ . 236
डाब राल अनुसार वीरभद्र में गंगा तट पर लाल शिला का बना एक सुंदर मुखलिंग मिला था (वही )
बूटधारी सूर्य
सूर्य को बूट पहने मूर्ति में निर्मित करने की कला कुषाण युग की ही दें है। उत्तराखंड में कटारमल मंदिर व मंदिरों में सूर्य बूटधारी सूर्य रूपमे मिलते हैं (डबराल , वही )
नाग देवता की पूजा
भात ही नहीं उत्तराखंड में भी कुषाण काल में नाग पूजा अधिक होती थी। मूर्तियों में सर्पों को मानव रूप दिया जाता था। (वी डी महाजन 1990 , ऐनसियंट इंडिया , पृ. 1450 ) और नाग पूजा प्रचलित हुयी
तीर्थ यात्राओं का प्रचलन भी कुषाण युग में प्रचलित हो चुका था। सम्राट अशोक ने स्वयं कई बौद्ध तीर्थों यात्रा की थी
अनुमान लगा सकते हैंकि कुषाण काल में हरिद्वार एक तीर्थ स्थल रूप में विकसित हो चुका था। यदि हरिद्वार कुषाण काल में तीर्थस्थल रूप अख्तियार न करता तो सातवीं सदी में चीनी यात्री हरिद्वार की ओर आकर्षित नहीं होता।
हरिद्वार से बद्रीनाथ यात्रा
देवप्रयाग में रघुनाथ मंदिर के पीछे कुछ शिलालेखों में यात्रियों के नाम हैं जो दूसरी से चौथी सदी के मध्य देवप्रयाग आये थे व व शिलालेखों में (एपिग्राफिया इंडिका पृष्ठ 133 ) मानपर्वत (माणा ) अंकन से डा छावड़ा ने अनुमान लगाया कि ये यात्री माणा याने बद्रिकाश्रम गए थे। तब बद्रिकाश्रम जाने का एक ही मार्ग था हरिद्वार से देवप्रयाग होते हुए बद्रिकाश्रम पंहुचना।
हरी की पैड़ी
यदि जनश्रुतियों पर विश्वास करें तो कुषाण युग में हरिद्वार में हरी की पैड़ी पवित्र स्थल प्रसिद्ध हो जाना चाहिए था। जनश्रुतियों में कहा जाता है कि माहराज विक्रमादित्य (कालिदास काल ) ने हरी की पैड़ी निर्माण किया था।
कुशाण इतिहास संदर्भ -
पुरी , इण्डिया अंडर कुषाणज
पुरी , इण्डिया अंडर कुषाणज
महाभारत
बंदोपाध्याय - प्राचीन मुद्राएं
घ्रिशमैन , ईरान
एलन - क्वाइन्स ऑफ अन्सिएंट इण्डिया
राहुल , मध्यएशिया का इतिहास
डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास भाग -३
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