Uttarakhand Medical Tourism in Garhwal Kingdom
( शाह कालीन उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
-
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -49
-
Medical Tourism Development in Uttarakhand (Tourism History ) - 49
(Tourism and Hospitality Marketing Management in Garhwal, Kumaon and Haridwar series--154 ) उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 154
पृथ्वीपतिशाह का शासन काल शाहजहां व औरंगजेब काल भी है। पृथ्वीपतिशाह कालीन पर्यटन से पहले माधो सिंह भंडारी मृत्यु प्रकरण जो मेडिकल साइंस पर भी प्रकाश डालता है पर विचार आवश्यक है ।
माधों सिंह की युद्ध में मृत्यु
बशेर (हिमाचल ) पर आक्रमण के समय माधो सिंह भंडारी पर मरणांतक घाव लग गए। माधो सिंह भंडारी ने अपने सहायक को आदेश दिया कि मेरी मृत्यु का समाचार अपनी सेना व शत्रु सेना को नहीं लग्न चाहिए। मेरी मृत्यु गुप्त ही रखी जानी चाहिए। मृत्यु उपरान्त माधो सिंह की सलाह अनुसार उसके शरीर को गरम तेल में भुने कपड़ों से लपेट कर बक्से में रखा गया था और जब तक गढ़वाली सेना हिमाचल से उत्तराखंड वापस नहीं आयी रब तक रहस्य गुप्त ही रहा। बाद में माधो सिंह के मृत शरीर का हरिद्वार में दाह संस्कार किया गया। मृत शरीर को परिरक्षित /preserve रखने का यह विधि शायद सदियों से चल रही होगी। बहुत से समय राजाओं व बादशाहों के मृत शरीर को कुछ दिनों बाद जलाया या दफनाया जाता था तो कोयले की धूल व तेल में भुने कपड़ा लपेट कर मृत शरीर पर संलेपन कर शरीर को परिरक्षित रखा जाता होगा।
वामन सोमनारायण दलाल अपनी पुस्तक (A History of India : from earliest Times , Vol.1, page 96, 1914) उल्लेख करते हैं कि सूर्यवंशी निमि जब श्राप से मरा तो उसके शरीर को परिरक्षित हेतु तेल व लाख से संलेपित किया गया। यह विधि माधो सिंह भंडारी काल में भी सफल विधि थी।
पृथ्वीपति शाह द्वारा पश्चिम क्षेत्र की रक्षा
नकट्टी राणी के समय शाहजहां की सेना ने दून प्रदेश व रवाईं पर अधिकार कर लिया था और फिर उसके सेनापति ने श्रीनगर की ओर कुछ किया था। ढांगू गढ़ के निकट बंदर भेळ से उसे भागना पड़ा और नजीबाबाद भागना पड़ा।
मुगलों ने तीन बार आक्रमण किया। कुमाऊं व सिरमौर राजाओं व मुगलों के सम्मलित छल कपट के सामने भी गढ़वाल देस सुरक्क्षित रहा। पश्चिम सीमा की रक्षा हेतु पृथ्वीपति शाह ने सिरमौर पर आक्रमण किया व जीता जो बाद में संगठित हिमाचली राजाओं ने वापस ली। किन्तु इससे पश्चिम सीमा सुरक्षित हो गयी व शाहजहां या अन्य मुगल शासक फिर कभी गढ़वाल पर आक्रमण का साहस न कर सके। राजनैयिक चतुराई से भाभर को भी वापस मुगलों से लिया गया ।
मेदनी शाह शाहजहां दरबार में
इतिहासकार मानते हैं कि दारा शुकोह के आमंत्रण पर पृथ्वीपति पुत्र मेदनीशाह मुगलों से संधि हेतु दिल्ली दरबार में उपस्थित हुआ। शाहजहां ने भेंट दीं और अपने दूत ऐधी को श्रीनगर भेजा। शाहजहां ने सभी विजिट प्रदेश वापस गढ़वाल को दे दिए
ऐधी का श्रीनगर में स्वागत किया गया व उसे भेंट दी गयी।
दारा पुत्र सुलेमान शुकोह का श्रीनगर में शरण
शाहजहां के बीमार पड़ने पर जब औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को वाद में भाइयों को भी कैद कर लिया व दारा लाहौर को ओर भाग गया (1658 ) तो उस समय दारा पुत्र सुलेमान शिकोह इलाहाबाद में था। उसके सलाहकार जय सिंह की सलाह पर उसने गढ़ राज में शरण ली। 14 जून 1658 सुलेमान शिकोह इलाहाबाद से नगीना पंहुचा व बाद में चंडीघाट पंहुचा जहां उसे गंगा पार करने मिलीं। कुछ दिन वह वहीं डेरा लगा कर रहा। वहां से संभवतः उदयपुर पट्टी में आमसौड़ पंहुचा जहां उसे पृथ्वीपति शाह मिला। पृथ्वीपति ने उससे सेना छोड़कर श्रीनगर आने की सलाह दी। कुछ दिन वः नहीं गया किन्तु अंत में उसे निस्सहाय ही श्रीनगर जाना पड़ा। सुलेमान शिकोह अगस्त 1658 में श्रीनगर पंहुचा।
मुगल सेना ने भाभर व दून के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया व पड़ोसी राजाओं ने भी आक्रमण किये किन्तु पृथ्वीपति शाह ने शरणागत को वापस औरंगजेब को नहीं सौंपा।
इस दौरान राजकुमार मेदनी शाह ने अपने पिता से शासन छीन लिया। पृथिवीपति शाह की मृत्यु 1664 में हुयी।
राजनैयिक पर्यटन
छिट पुट व बड़े आक्रमण से वास्तव में राजनयिक पर्यटन भी बढ़ता है। औरनंगजेब ने सुलेमान शिकोह को वापस लेने हेतु पृथ्वीपति शाह को समझाने बुझाने के लिए केवल आक्रमण का सहारा नहीं लिया अपितु राजनैयिक दूतों की भी सहायता ली याने डिप्लोमेटिक टूरिज्म भी चलता रहा।
युद्ध नई चिकत्सा विधि भी जन्मता है
मनुष्य ने यदि कोई पाप किया है तो वः जघन्य पाप युद्ध। है किन्तु यह एक आवश्यक बीमारी बन चुकी है।
छोटी झड़प हो या वर्षों तक चलने वाले युद्ध सभी युद्ध चिकित्सा विधि विज्ञानं में निरंतरता वृद्धि करते हैं या कई नए आविष्कार करते हैं। गढ़वाल पर आक्रमण हुए या गढ़वाल ने आक्रमण किये दोनों स्थिति में चिकित्स्क भी साथ गए होंगे। युद्ध में वीर रस गीत गाने वाले भी मनोचिकित्स्क का काम करते थे।
आयुर्वेद व यूनानी औषधि तंत्र का आदान प्रदान
दारा शिकोह द्वारा संस्कृत उपनिषदों का अरबी में अनुवाद का आठ है कि दारा शिकोह के पास संस्कृत व आयुर्वेद शास्त्री भी थे। आयुर्वेद व यूनानी विचारों व विधयों का ादाम प्रदान भी दारा की बुद्धिजीवी सभाओं में अवश्य होता रहा होगा।
1638 में हकीम अमनउल्लाह खान ने यूनानी हकीमों और आयुर्वेद वैद्यों द्वारा चिकित्सा विधयों को संकलित किया था जो दो शास्त्रों के संश्लेषण हेतु महत्वपूर्ण कार्य माना गया था।
दारा के सम्मान में चिकित्सा पुस्तक रचना
शाहजहां के सभासद यूनानी चिकित्सा शास्त्री ने दारा शिकोह के सम्मान में 'तिब्ब -ए -दारा शिकोही' संकलित किया जिसमे अकबर जहांगीर व शाहजहां काल में चिकित्सा शास्त्रियों की सफल चिकत्साों का ब्यौरा है।
कहा जाता है गुरु हर राय ने दारा शिकोह की चिकित्सा की थी जिसमे मोती पीसकर दवाई बनाई गयी थी। तातपर्य है कि चिकित्सा में खनिजों का उपयोग भी इस काल में खूब प्रचलित हुआ।
रस शास्त्र परिचय (रसायन शास्त्र )
यद्यपि धातुओं का औषधियों में प्रयोग चरक संहिता आदि में भी है किन्तु आठवीं सदी के पश्चात रस शास्त्र के विकास में नवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य के शिष्य गोविन्द भागवद पद ने 'रस हृदय तंत्र' की रचना कर धातुओं का आयुर्वेद में प्रयोग को शीघ्रता पूर्वक बढ़ाया। रस हृदय तंत में पारे के प्रयोग का विवरण है। यूनानी चिकत्स्कों से मेल जॉल व यूनानी चिकित्सा से प्रतियोगिता ने आयुर्वेद में धातु भष्मों के प्रयोग को बढ़ाया।
रस शास्त्र औषधि बनाने , उन्हें सुरक्षित रखने की कला भी निर्देशित करता है।
रस बागभट्ट रचित (तेरहवीं या सोलहवीं सदी ) 'रसरत्नसम्मुच्चय ' आयुर्वेद में धातु प्रयोग की क्रांतिकारी व उत्प्रेरक ग्रंथ है।
माधव उपाध्याय ने 16 -17 वीं सदी में रस चिकित्सा में जितना भी अधिप्रमाणित साहित्य उपलब्ध हो सकता था उस साहित्य को संकलित कर 'आयुर्वेद प्रकाश ' का संकलन व सम्पादन किया। आश्चर्य है कि इस ग्रंथ केबाद रसशास्त्र पर कोई क्रांतिकारी व बृहद नई पुस्तक नहीं संकलित हई।
आयुर्वेद के साथ बड़ी दुर्घटना यही हुयी कि अशोक काल से ही शासकों ने आयुर्वेद शास्त्र की सर्वथा अवहेलना की और आयुर्वेद शास्त्र समाज व विद्वानों के बल पर आज भी जीवित है। वर्तमन में बाबा रामदेव के कारण आयुर्वेद चर्चा में है तो उसका श्रेय शासन अपितु एक संस्कृति को जाता है।
रस शास्त्र और उत्तराखंड
गढ़वाल -कुमाऊं में स्वर्ण चूर्ण , ताम्र खानें , लौह खानें , गंधक होने से, बांस से सिलिकॉन , विष , लाख आदि भूतकाल से ही निर्यात होता रहा है साथ में तिब्तीय सुहागे का बिक्री केंद्र भी रहा है। इसका तातपर्य है कि खनिज कर्मियों व निर्यातकों को रस शास्त्र ( रसायन शास्त्र आदि ) का भरपूर ज्ञान था। यह ज्ञान स्वयमेव पहाड़ों में भी फैला होगा। सिद्ध व नाथ गुरुओं ने भी रस शास्त्र का उपयोग उत्तराखंड में किया होगा।
केदारनाथ का शैव केंद्र होने से पारा रस विज्ञान विकास या ज्ञान प्रसारण की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
हरिद्वार : रस शास्त्र विद्या आदान प्रदान केंद्र
गंगा द्वार , मायापुरी या हरिद्वार (कनखल ), मयूरध्वज (वर्तमान बिजनौर ) प्राचीन काल से ही हिन्दू साधुओं , विद्वानों , नाथ व बुद्ध सिद्धों , जैन साधुओं का अध्ययन व पर्यटन केंद्र रहा है। आकलन कर सकते हैं कि सनातनी विद्या , बौद्ध विद्याएं व रस विज्ञान विद्या का आदान प्रदान हरिद्वार में प्रत्येक युग में होता रहा होगा। गढ़वाल कुमाऊं में भी रस सिद्धांत प्रसारण में हरिद्वार , मयूरध्वज का महत्वपूर्ण स्थान रहा ही होगा।
Copyright @ Bhishma Kukreti 22/3 //2018
ourism and Hospitality Marketing Management History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य
1 -भीष्म कुकरेती, 2006 -2007 , उत्तरांचल में पर्यटन विपणन
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास part -4
-
No comments:
Post a Comment
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments