धरती पर आई है,
तभी तो पहाड़ पर,
बुरांश की लाली छाई है,
पीले रंग में रंगि फ्योंलि,
उत्तराखंड अपने मैत आई है.
बनो बाराती आप भी,
पहाड़ी परिवेश में,
सज धजकर,
ऋतु बसंत आई है,
मन में उमंग छाई है,
मैं नहीं कह रहा हूँ,
पहाड़ से बहती हवा ने,
मेरे पास पहुँच कर,
यंग उत्तराखंडी मित्रों,
चुपके से बताई है.
लेकिन! मित्रों आज,
पहाड़ पर,
बचपन में देखी,
"बसंत की बरात" की झलक,
मन में उभर आई है,
तभी तो कवि "ज़िग्यांसु" ने,
आपको भी बताई है.
क्या आपके कदम?
उत्तराखंड की धरती की ओर,
"बसंत की बरात" में जाने को,
बढ़ रहे हैं,
कल्पना में पहाड़ पर,
ख़ुशी ख़ुशी चढ़ रहे हैं,
अगर नहीं ऐसा,
तो कल्पना में खोकर,
देख लो "बसंत की बरात",
सकून मिलेगा आपको,
क्या ख़ुशी की बात.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ३.३.२०१०)
E-Mail: j_jayara@yahoo.com
M-9868795187
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