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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, August 10, 2009

अपना-पराया दर्द


पड़ोसी की मुर्गी अक्सर ज्यादा अण्डे देती है
पराई दावत पर अक्सर भूख बढ जाती है

पहनने वाला ही जानता है जूता कहाँ काटता है
जिसे कांटा चुभे, वही उसकी चुभन जानता है

अंगारों को झेलना चिलम खूब जानती है
समझ में तब आती है जब सर पर पड़ती है

दूसरे के दिल का दर्द अक्सर काठ का लगता है
पर अपने दिल का दर्द पहाड़ सा लगता है

भरे पेट भुखमरी के दर्द को कौन समझता है
पराई चिन्ता में अपनी नींद कौन उड़ाता है

अपने कन्धों का बोझ अक्सर भारी लगता है
सीधा आदमी हमेशा पराए बोझ से दबा रहता है

Copyright @Kavita Rawat, Bhopal,2009

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