Garhwali Satire by Narendra Kathait
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‘नंग’, सीधु हमारु ‘अंग’ नी, अंगौ ‘अंग’ च।
‘दंत्वी’ हद, खबड़ा तक अर ‘नंग्वी’ अंग्ळ्यूं का ‘पोर्यूं’ तक। ब्वनो मतबल यो च कि दाँत अर नंग, द्वी इन्नी चीज छन, जु हद से जादा बढ़ीं, कुस्वाणि लग्दन्। खबडा नंग्येकि, भैर अयां दाँत, कख छा भला। अंग्ळ्यूं कि पोर्यूं सि ऐथर बढ़्यां नंगै बि इज्जतनि रै जांदि। पर याँ मा खबड़ा अर अंग्ळ्यूं तैं दोष देणु ठीक नी। थुड़ा टोका-टाकि कैकि त् दांत खबड़ा भित्र, टप्प टुपरे जंदन्। पर नंग्वा, नाक मा त् सरम नौ कि क्वी चीज छयीं नी।
नंगू, एक हि रोणू च कि मनखी तौं तैं अंगुळों का ऐथर नि बढ़्ण देंदन्। पर अंगुळौं पर नंगू इन्नौ इल्जाम लगौणु, हम तैं जमि नी। किलैकि हम त् अपड़ि आँख्यूंन् द्यखणा छां कि अंग्ळ्यूंन् त् तौंकु तैं, कै दौं बोल यालि कि जा, जख तक तुमारि मर्जि औणि,बढ़ ल्या। पर कै काम औण तनु बढ़यूं? नंग ऐथर त् बढ़ जंदन् पर बढ़ी तैं न त् तौं पैथरै सुद्ध-बुद्ध रौंदि अर् न् ऐथर तौंकि क्वी पूछ होंदि। क्वी सुद्दि थुड़ि बोलगि कि ‘हद से जादा, क्वी बि चीज कख छै भलि? टंगड़ि उथगि तलक फैलावा, जथगा तलके चदरीमिलीं’। कै गरन्थ मा इन बि पढ़ण मा ऐ- ‘स्थान भ्रष्टा न शोभन्ति-दंता, केशा, नखा’।
बढ़्यां नंग्वी, हरकत देखी, कै बार, अंगुळा गरम ह्वे् जंदन्। गरम होणै बात बि छयिं च। क्य अंगुळौंन्, इन्नै-उन्नै नि फरकुणू? य अंगुळौंन्, काम धंधा नि कन्नू। नंग्वी इन्नी हरकत देखी, एक दिन, एक अंगुळू, अपड़ा बरोबर पर खड़ा, हैंका अंगुळा मागरम ह्वेकि ब्वनो छौ कि ‘भैजी! यूं बढ़्यां नंगून् त् हमारि नाक मा दम्म कर्यालि। एक दिन, जरा बग्त निकाळा दि! सब्बि मिलि-जुली करा छुट्टि। गंदगी, देखा दि! छिः लोळा निरभागि! आखिर... य दिक्कत, हम मद्दि कै एकै त् छ नी, परेसनी सब्यूं तैं चउठौण प्वड़णि। न क्वी चीज अंक्वे कैकि पकडे़णी न् अंक्वे कैकि खयेंणी। यूंका चक्कर मा अपड़ि बि नहेंणी-धुयेंणी नी होणी। उल्टाँ ऐंच वळों कि टुक्वे हमतैं खाण प्वड़दि’।
इथगा सूणी तैं, हैंका अंगुळौ जबाब छौ कि ‘दिदा! त्यरु ब्वनो बिल्कुल सै च! यूं बढ़्यां नंगून्, हमतैं सदानि टुक्वे खलायि। हमारा बचपना मा बि जब यि हद से ऐथर बढ़्यां रैनी त् हमारि ब्वे भग्यनिन्, सयाणौं कि गाळि खैनी। सब्यूंन् हमारि ब्वे खुण्यूं बोलिकि ‘स्या लापबाह च हमारि परबरिस पर ध्यान नी देणी’।
थुड़ा बड़ा होण पर हम बड़ौं कि टुक्वे खाणा छां कि ‘कैन हमतैं तमीज सिखलायि नी’। यूं बढ़्यां, नंग्वी त्...ऐसी-तैसी’। पर झूठी बात! अपड़ा बढ़्यां नंग्वी, ऐसी-तैसी, क्वी नि कर्दू। बढ़्या नंगू तैं मनखी, देखी भाळि कटदू। कै बार, बड़ा पिरेम भौ से मनखी,अपड़ा दांतून् बि नंगू कुतुर्नु रौंदु। नंगू तैं पता च अपड़ा नंगू दगड़ा जोर-जबरदस्ती क्वी नी कर्दू। हम बि पता च कि ‘नंग’, सीधु हमारु ‘अंग’ नी, अंगौ ‘अंग’ च। नंगै त पिड़ा पचायीं च पर जै अंगौ नंग समाळ्यूं च वे पर त् पिड़ा छैं च।
थुड़ा बड़ा होण पर हम बड़ौं कि टुक्वे खाणा छां कि ‘कैन हमतैं तमीज सिखलायि नी’। यूं बढ़्यां, नंग्वी त्...ऐसी-तैसी’। पर झूठी बात! अपड़ा बढ़्यां नंग्वी, ऐसी-तैसी, क्वी नि कर्दू। बढ़्या नंगू तैं मनखी, देखी भाळि कटदू। कै बार, बड़ा पिरेम भौ से मनखी,अपड़ा दांतून् बि नंगू कुतुर्नु रौंदु। नंगू तैं पता च अपड़ा नंगू दगड़ा जोर-जबरदस्ती क्वी नी कर्दू। हम बि पता च कि ‘नंग’, सीधु हमारु ‘अंग’ नी, अंगौ ‘अंग’ च। नंगै त पिड़ा पचायीं च पर जै अंगौ नंग समाळ्यूं च वे पर त् पिड़ा छैं च।
वुन त् नंगू तैं, हद से अगनै बढ़ी तैं मिलि बि क्या? इन त् छ नी कि अंगुठा वळा नंगै इज्जत, बढ़ी तैं करअंगुळा नंग से जादा ह्वे ग्ये होवु। य बड़ि अंगळ्या मुंड मा, कैन हीरा-मोत्यूं कु मुकुट धार दे होवु। य बढ़ी तैं क्वी नंग, सीधा स्वर्ग चल ग्ये होवु। बढ़्यांनग्वी इज्जत बि तब हि तक च जब तक तौंकि पकड़ अंगळ्यूं का मासा तक च। मासा से ऐथर बढ़्यां नंगू मा, मासौ तैं पिरेम-भौ नि रै जांदु। न तौं मा दया धरम, नौ कि क्वी चीज बचीं रै जांदि। पर नंग इन कबि नि स्वच्दन, कि तौंकि मुखड़ि मा ‘चलकैस’बि तब हि तलक च जब तलक सि मासा पर चिपक्यां छन। मासू छोड़ी नंगू मा रूखूपन्न ऐ जांदु।
बढ़्यां नंग्वी, सकल बि ‘क्याप’ ह्वे जांदि। वुन् त् सरसुती, कैकि सकल सूरत पर जादा ध्यान नी देंदी। सरसुती त लगन अर् मेनत पर जादा बिस्वास कर्दि। पर बढ़्यां नंगू से त् कलम बि अंक्वे नि पकड़ेंदि। अर् बिगर कलम पकड़्यां त् कुछ होण्यां नी। जबकुछ पढ़्ल्या, कुछ लिखल्या, तबि त् भाषा सिखल्या। यिं बात तैं न् सि समझ्दन्, न् तौंकि समझ मा औंदि। सुद्दि मोळा सि माद्यो! इलै सरसुत्या नजीक रैकि बि नंगून्, ‘बुगदरा’ देणा अलौ, कुछ नि सीखी।
बढ़्यां नंगू तैं कथगा बि समळंनै कोसिस कर ल्या धौं, सि फिर्बि कक्खि न् कक्खि जरुर ‘बिल्क’ जंदन। बिल्कणा बाद य बात पक्की च कि बिलक्यूं नंग, कै न् कैकु नुकसान जरूर करलु य नुकसान न् सै त् अपड़ि मोण तुड़वैकि जरुर लालु।
कै योगि अजक्याल इना बि छन, जु नंग्वा ‘मुंड’ लड़ौण सिखौणा छन। अपड़ा नंग्वा, आपस मा मुंड लड़ौंदु, एका योगि तैं हमुन् पूछि- ‘योगि जी! नंग्वा बारा मा कुछ बतलावा’? वेन् जबाब दे- ‘तंदुरुस्त रौण चाणा छयां त् खाली बग्त मा अपड़ा नंग रगड़ा’।हमुन् अगनै पूछि- ‘नंग रगड़ि-रगड़ी त् झड़ जाला’। योगिन् बोली- ‘भुला! क्वी बात नी, एक दौं का नंग झड़ जाला त् हैंकि दौं का जम जाला’। ताँ पर हमतैं ब्वन् प्वड़ि- ‘पर आखिर कथगा दौं आला, नंग त् रगड़ि-रगड़ी हरेक दौं झड़दि जाला’। योगि जीन्,बात समाळि- ‘अच्छा इन बता, दांत कथगा ‘भै’ छन’? हमुन् जबाब दे- ‘बत्तीस’।
हमारा ‘बत्तीस’ ब्वन पर योगि जी कु ब्वल्यूं सुण्ण मा ऐ- ‘बत्तीस न भुला! दाँत, कुल-कुलांत, द्वी भै छन’। ‘हे राँ! अब वू जमानू अब कख रयूं, जब सब्बि भै मिली-जुली रौंदा छयां। अब त् भै बिगळेकि सोरा, जख देखा ओडै-ओडा। जब तक एक भै सांसलेणू रौंदु, वेका धोरा-धरम हैकू नि औंदु। दंत्वा मामला मा बि इन्नी च, जब एक टूट जांदु, तब हैंकु औंदु। द्वी दांत अगर, एक हि जगा मा ऐ ग्या त् तौं मद्दि एका तैं तोड़्ण प्वड़दू’। हमुन् पूछि- ‘अर नंग’? वून जबाब दे- ‘भुला! नंग सात भै छन’। हम अगनैपुछूण चाणा छया कि वू सात भयूं मद्दि तुमुन् कथगा द्यख्नी? पर ऐन मौका हमारि बुद्धििन् हमारु हाथ पैथर खैंच दे। हम रुक ग्यां। किलैकि वू बोल सक्दा छया कि एक दौं अपड़ा नंग रगड़ी टुटुण त् द्या।
नंग्वी कमी छुपौणू तैं दुन्या, नंगू पर लाल, गुलाबी पौलिस बि कर्दि। पर पौलिस कैकि, सकल सुधरि ह्वलि, आदत सुधुर्दू त् हमुन् कैकि नि देखी। भ्वर्यां दरबार मा त् कालीदासा जबाब ‘इसारौं’ मा पढ़ै ग्येनि। पर इसारौं का, सारा-भरोंसा पर त् जिंदगीचल्दि नि। क्वी मानुु चा नि मानु य बात बि हमारि, खूब कैकि अजमयीं च कि एक न् एक दिन त् बात खुली ही जांदि। क्य कालीदासौ पता बिद्योतमा तैं बाद मा नि चलि? हम त् साफ अर् सीधी बात जणदाँ कि नंग अंगुठाऽ मुंड मा खड़ो होवु चाकरअंगुळ्या चुफ्फा मत्थि, नंग द्यख्येणा छ््वटा-बड़ा ह्वे सक्दन् पर संत-मात्मा तौं मद्दि क्वी नि।
य बात बि क्वी सुद्दि नि बोल ग्ये ह्वलू कि नंगून् बगदौर्यूं घौ, बिस्सै जांदु। घौ पर बग्त पर ध्यान नि द्या त् कीड़ा गिजबिजाण बैठ जंदन्। पर इथगा त् हम बि द्यख्णा छां कि नंगू पर बुद्धि नौ कि बि क्वी चीज नी। भुज्जी, खाण गिच्चन् च पर नंग पैलिपर्वाण बण जंदन्। लौकि, ग्वदड़ि अर भट्टै त् नंग्वा ऐथर सामत हि अयिं रौंदि। लौकि, ग्वदड़ि अर भट्टा, कुंगळा होवुन् चा बुढ़्या, नंगै मर्जि सि जख चावुन् तौं पर गंज, गंजाक मार देंदन।
एक दिन, नंग्वी सतायिं-पितायिं, एक बुढ़्या लौक्यू’ ब्वल्यूं हमुन् इन सूणी ‘भुली! पैलि हम समझ्दा छा कि दाँत हि हमारा सबसि बड़ा दुस्मन छन। पर यूं नंगुन् त् म्वन से पैलि, हमारु जीणू हराम कर्यालि। घौर होवु चा बौण, गंज, गंजाक मार देणान। येअन्यो द्यख्ण वळु क्वी नी। परमेसुरा बि झणि किलै, आँखा बुज्यां छन’। यीं बात पर ग्वदड़िन्, चक्रबिरधि ब्याजौ सि छौंका ढेाळी बोलि- डंक मन वळौं का दाँत नि हुंदन् दीदी!
लोेग यि बि ब्वल्दन् कि ‘नंग’ अर ‘बाळ’, चैबाटौं मा पुजणा काम अंौंदन्। कुजाणि भै! हमुन् त् यि देखी कि नंग अर बाळ तैं एका-हैका सि क्वी मतबल छयीं नि। म्वर्दू-म्वरदू तक न त् बाळ अपड़ि जगा बिटि जरा बि हिटदु अर न् नंग इन्नै-उन्नै ठस्कुदु।बाळ अर नंग एका-हैकै दुख-तकलीफ मा बि सामिल नि हुंदन्। द्वी खाणा-प्येणा, अफ्वी मा मस्त रौंदन्। जब बच्यां मा दुयूं का यि हाल छन त् मुर्यां मा यि चैबाटा पुजणा काम, कनक्वे ऐ जंदन्’?
बढ़्यां नंग, खून खतरी बि कर्दन। यीं बातौ पता हमतैं, एक दौं, इंत्यान देंद दौं, तब चली जब तै इंत्यान मा हमतैं सवाल पूछै ग्ये छौ कि ‘काळा डांडा रैंदु छौं, लाल पाणि प्येंदु छौं, नंगना सहर मा मरेंदु छौं, बता दौं, कु छौं’? ये सवालो जबाब देण मा हमतैंएक घंटा त् अपड़ो कपाळ खज्योण पर लगी। पर जबाब बि कपाळ खज्यांैद-खज्यांैद तब मिली, जब तख बिटि कैन जबाब दे- ‘अरे! टपरौणु क्य छयि? म्यरु नौ लेख ली दि’। हमुन् सुरक पूछि- ‘तू कु छयि’? वेन जबाब दे- ‘अरे कु त् वु छवूं, किस्मतौम्वर्यूं, जँू छवूं भयि’! इनै, इंत्यान मा ‘जँू’ लेखी, जनि हमारु एक लम्बर पक्कू ह्वे, नंगून् भैर खैंची, वो जँू कचमोड़ दे।
हे लोळा नंगू....! कब आलि तुम पर सुबुद्धि्?
(नंग- व्यंग्य संग्रह - नाराज नि हुयां)
Copyright@ Narendra Kathait
Thanking You with regards
B.C.Kukreti
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments