जब मनख्यौं का मन मा,
याद बणिक ऊभरिक औन्दा,
पापी पराण क्वांसु होन्दु,
कुजाणि क्यौकु खूब सतौंदा.
खैणा तिमलौं की डाळी मा बैठि,
"ऊ बचपन का दिन" खूब बितैन,
सैडा गौं की काखड़ी मुंगरी,
छोरों दगड़ि छकि छक्किक खैन.
पिल्ला, थुच्चि, कबड्डी अर गारा,
खूब खेलिन गुल्ली डंडा,
बण फुन्ड खाई हिंसर किन्गोड़,
घोलु फर हेरदा पोथलौं का अंडा.
गौं का बण फुन्ड गोरु चरैन,
छोरों का दगड़ा गोरछ्यो खाई,
आम की दाणी खाण का खातिर,
आम की डाळी ढुंग्यौन ढुंग्याई.
थेगळ्याँ लत्ता कपड़ा पैर्यन,
चुभ्यन नांगा खुट्यौं फर कांडा,
हिंवाळि काँठी बुरांश देखिन,
जब जाँदा चन्द्रबदनी का डांडा.
स्कूल्या दिन ऊ कथगा प्यारा,
आँगळिन लिख्दा माटा मा,
प्यारू बचपन आज खत्युं छ,
गौं का न्योड़ु स्कूल का बाटा मा.
हे बचपन! अब बिछड़िग्यौं हम,
याद औन्दि चून्दा छन तरबर आंसू,
बचपन की बात आज बतौणु,
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु".
(रचना पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
दिनांक: १०.१०.२०१०,@सर्वाधिकार सुरक्षित
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