म्यारू आश कु पंछी रीटणु रेएँद ,झणही किल्लेय बैचैन होव्केय ?
झणही किल्लेय डब-डबानि रेंदी मेरी आँखी दिन रात इन्ने फुन्डे ?
किल्लेय देखणी रेह्न्दी टक्क लग्गे की बाटू पल्या स्यार कु ?
उक्क्ताणु रेंद म्यारू तिसल्या प्राण झणही कैय्येका बाना ?
शयेद में आज भी आश कनु छों की ,
वू कब्भी त़ा आला बोडी की अपडा घार ?
वू जू म्यरा छीन ,और मीं सिर्फ जौं की छों ,
बस इंही आश मा कटणू छों आपणा दिन की ,
मतलब से ही सही ,पर वू आला जरूर कभी त़ा ,
क्या पता से वेह्य जाऊ वों थे भी मेरी पीड कु अहसास
और बौडी आला सब म्यरा ध्वार ,अपना घार,अपणा पहाड़
बस एही चा आज मेरी आखरी आश !
बस एही चा आज मेरी आखरी आश !
बस एही चा आज मेरी आखरी आश !
"जन्म -भूमि उत्तराखंड की साखीयौं पुराणी पलायन पीड़ा थेय सादर समर्पित मेरी कुछ पंक्तियाँ एंन्ही आश का साथ की एक दिन पहाड़ मा पलायन एक समस्या नि रैली "
रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ),दिनाक ११-०९-2010
अस्थाई निवास: सिंगापूर / मुंबई /सहारनपुर
मूल निवासी: ग्राम महर गावं मल्ला ,पट्टी कोलागाड
पोस्ट-तिलखोली,पौड़ी गढ़वाल ,उत्तराखंड
Source: म्यरा ब्लॉग "हिमालय की गोद से " और पहाड़ी फोरम मा पूर्व-प्रकशित
NAICE
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