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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, May 17, 2009

गढ़वाली नाटक और मै

मेरी एक कविता ..

ढूध अर बोली


मिनख का वास्ता
सबसे पवित्र अर सबसे उत्तम होंद
बोई को ढूध ....
उतगे पवित्र अर उत्तम होंद वा
गेयूं की बलडी............
जैसे पैदा हुन्द एक ताकत
जैसे बण्द बोली /भाषा
वीका बोली अर वी भाषा बान तुम
अप्णो ब्रह्मांड नि कटै सकदा
अर सीना पर गोली नि खे सकदा त
धिक्कार च तुमको ! "
....................... पराशर गौड़ !

मेरे जीवन में गढ़वाली नाटक की सुरवात का सिलसिल्ला बच्चपन के दौर से ही सुरु हो गया था ! गाऊ में अक्क्सर जब लोगो खेती बाड़ी के काम काज से हलके हो जाते थे तो, रात को मनोरजन के लिए राम्लीलाये खेला करते थे ! मुझे अच्छी तरह याद है हमारे मिरचोडा ग्राम में एक बहुत बड़ा चौक है उसमे ये कार्याक्रम होते थे !

बात ६० के दशक की है तब मेरी उम्र रही होगी १० साल ! उस साल भी गोउ के लोगो ने रामलीला करने की आयोजन बनाई और उससे पहले एक नाटक खेलने का भी मन बनाया ! चूँकि पहाड़ देवभूमि है इसलिए तब धार्मिक नाटक ही वहा खेले जाते रही है सो , तब उन्होंने भी "राजा हरीशचंदर " खेलने की तयारी करने सुरू कर दी ! रात को रिहर्सल सुरु हो गई ! पात्र छांटे जाने लगे ! सब मिलगये पर रोहताश का पात्र नहीं मिला ! एक दिन मै भी रहर्शल देखने गया तो गौउ के एक चाचा ने पकड़कर मुझे आगे कर दिया ! पहले तो मै जनता को देखकर घबराया , थोडा सरमाया पर चाचा ने जेब से तब एक मीठाई " लेमचूश " निकालकर मुझे पकडाते हुए कहा ये डायलाग बोल " अरे मरी माँ को कहा ले जा रहा है " ... मैंने इधर उधर देखा , हिमत जुत्ताकर कहाडाला ... " सुनकर लोगो ने तालिया बजाई जिसे देखकर मारा मनोबल बडगया फिर क्या था मैंने रोज जाकर खूब मेहनत की ! ड्रामा हुआ ! मेरा पाठ लोगो को खूब पसंद आया ! इनाम में मुझे एक रुपया मिला ! मै सातवे आसमान पर ... बस , वो दिन था की आज का दीन नाटको एसा जुड़ा की चाह कर भी नहीं छूटा वो च्स्सका !

60 के दशक में ... ८वी पास करने के बाद मुझको उच् शिक्षा के लिए देहली आना हुया ! मुझको मात्ता सुंदरी हायर सेकंडरी स्कूल में दाखिला दिला दिया गया ! घर की प्रस्तितियो में बिभाधन आने के कारण मैंने ये निर्णय लिया की मै दिन का स्कूल छोड़ कर रात में ब्याक्तिगत पडू , और दिन में मै काम करू ! इस तरह बतौर प्राइबेट बिद्यार्थी के रूप मैंने १०वी और 12वी की ! पदाई के दौरान मुझे एक दोस्त जिनका नाम जगदीश डौन्दियाल है उनसे मुलाक़ात हुई ! वे बहुत ही अच्हा गाते थे ! मैने तब गीत लिखने शुर ही किये थे ! दोनों ने सोचा क्यों ना आकशवाणी में ट्राई करे ! उन दिनों देहली से सप्ताह में दो दिन गड्वाली गीतों का प्रशारण हुआ करता था ! उनके कहने पर मैंने गीत लिखने सुरु कर दिए ! उसने आडिशन के लिए फार्म भरा और वो पास हो गए ! सबसे पहले उसने मेरे द्वारा लिखित दो गीत गए ....

" होसिया जोगी , कैलाश बासी जागी जावा इ बाबा नीलकंठी "
" भागीरथी को छालो पानी गाल गाल ...... " !


उसके बाद तो वे हमेशा मेरे ही द्वारा लिखे गीत गाते रहे ! हम दोनों की जोड़ी जम सी गई थी ! थोडा बहुत नाम होना सुरु होगया था ! उन दिनों गड्वाली के नाम पर सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत कम होया करते थे , और जो होते भी थे तो पट्टी लेबल पर ! इन कार्यक्रमों को सरकारी नौकरियो में सबे नींम श्रेणी जिन्हें तब चतुर्थ श्रेणी के नाम से पुकार जाता था किया करते थे !

इस दशक में गड्वाली हिन भावन का सिकार..........

इस बीच देहली में एक बड़ी तबदीली दिखने में आई सरकारी नौकरियों में पाहाडी तपके से बाबुओ की तायदाद बड़ी ! एक और खुसी भी हुई तो इसका बुरा नतीजा हमरे समाज पर पडा क्यों की जो बाबु बना वो पहाड़ के गड्वालीयो से कट गया ! वो इस बाबू गिरी में अपनी माँ बोली रहन सहन तक से अपना नाता तोड़ने में लग गाया ! वो हिन्भावान का शिकार होता चला गया ! अधिकतर लोगो ने अपनी जात छुपाने के लिए शर्मा लिखने लगे थे ताकि कोई उन्हें जात के द्वारा न जान पाए की ये वो जात है जो गडवाल में पाई जाती है ! अपने साथ वो जो करते थे सो ठीक पर उन्होंने अपने बचों को भी गडवाल व गड्वाली बोली से कोसो दूर रखा नतीजा ये हुआ की गड्वाली बोली का विकास एक दम रुक सा गया ! ना कोई गीत -,संगीत ना सांस्कृतिक कार्यकर्म ना कविता ना नाटक ! उस दौरान जैसा मैंने कहा की चपरासी लोगो ने गड्वाली बोली भाषा को जिंदा रखा ! बाबु से थोडा उप्पर उठे चद एक लोगो में फिर से अपनी बोली के प्रति कुछ रुछान जो किसी कोने में अभी जिंदा था वो जग रहा था !

गड्वाली नाटक और उसकी दशा ....

मै गड्वाली गीत लिखता रहा और वो आकाश्बानी से प्रसारित होते रहे ! सेवा नगर ( सेवा इसलिए रखा या कहा जाता रहा क्यूँ की वहा पर सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले चपरासी लोगो जो दफ्तारो में जो सेवा करते थे उनके इस सेवा भाऊ को देख कर उनकी कोलानी का नाम रखा गया ) में यदा कदा ये लोगो गीत/निर्त्य का प्रोग्राम करते थे उसमे आकाशवाणी का कलाकार का आना अपने आप में एक बहुत बड़ी हस्ती के आने के न आने बराबर था बल्कि वे अपने को फक्र भी मह्शूश करते थे की हमारे प्रोग्राम में आकाशवाणी के आर्टिस्ट आये ! मै जगदीसा को आमंत्रित किया जाता रहा ! हमे समान मिलता , हमें भी गर्व होता !

देहली में गड्वाली नाटक की सुरुवात

देहली जैसे महानगर में बिभिन्न प्रान्तों से लोगो आकर बसे और वे अपने साथ लाए अपने साथ अपने प्रदेश या प्रान्त की हर चीज़ जैसे बोली/भासा पहनाऊ रीती रिवाज़ खान पान आदि ! गडवाल से भी लोगो यहाँ आकर बसे ! कभी कभार ये लोग सांस्कृतिक का आयोजन भी करते थे ! उस दौरान मुझको एक नाटक देखने को मिला जिसे स्वर्गीय ललित मोहन जी ने लिखा था वो एकांकी नाटक " घर जवाई " था जिसको किया था " सहित्य कला समाज ' सरोजिनी नगर वालो ने ! बाद में ये संस्था ने नाम बदल कर "जागर " रखकर कई नाटक प्रस्तुत करे ! नाटक अछा था लेकिन , नाटक की में कई बाते थी जिसमे गड्वाली के प्रति लोगो की उदासीनता देखी जा सकती थी ! मसलन लोगो का (दर्सको का ) अभाऊ , स्त्री पात्रो का न होना , किसी नाट्य सभा गार में न खेला जाना या होना , किसी एक बिशेस लोगो का होना या के लिए खेला जाना , किसकी ख़ास गुट का होना आदि आदि ! जैसा मैं ने पूरब में भी कहा की लोगो हिन् भावनाओ से ग्रस्त होने के कारण खुलकर बाहर नहीं आ रहे थे फिर भी यह संस्था कभी कभार नाटक करती रहती थी ! कभी समय तक ये सिलसिला चलता रहा ! एकांकी ही का दौर बना रहा ! फुललैथ नाटक ना तो लिखे जारहे थाईऔर नाही खेले जा रहे थे कारण साफ़ था !

१. जनता का रुझान नहीं के बराबर था और नहीं माहोल बन पा रहा था !
२. स्त्री पात्रो का अभाऊ जो नाटक को प्रिय बनाने में अहम् भूमिका निभाती है का ना होना !
३ गद्वालियो का अपनी बोली से जान भुझकर मुख मोड़ना !

जब मै देहली आया गड्वाली बोली के प्रति लोगो का ये रवया देखा तो मन को ठेस पहुंची ! नाटको के प्रति रुझान तो था ही मौके के तलाश में था और देखा कोइ संस्था खेल रही है तो उसकी रहर्शल में जाता ! बैठा रह्त्ता ! रात १२ बजे दो दो बस्सो को बदल कर घर आता ! मुझे अछी तरह याद है जब मैंने किसी ऐक्टर से कहा कि मुझको भी कोई रोल दिलवा दो तो उसका कहना था " अभी तुब हमारे लिए बीडी पान लाते रहो " फिर देखेगे ! खैर बात नहीं बनी ! इस बीच एक और नाटक देखा जो जीत सिंह नेगी जी ने लिखा था " भारी भूल" जिसमे विमला /कांता थपलियाल नामक दो भीने स्टेज पर आई ! यहाँ पर पहलीबार मोहन उप्रती जी से मुलाक़ात होई ! बाद में रानाजी , भूतपूरब आयुक्त टम्टा जी , मोहन जी और मैंने ने मिलकर एक संस्था बनाई जिस्सके तत्वाधान में " कमानी हाल में "राजुला मालू शाही " खेला गया ! जिसकी मुख्या भुमका नभाही थी विश्व मोहन बडोला और भारती शर्मा ने !

कोई घास ही नहीं गेर रहा था जब जब चाहा एक मायेने में दुत्कारा ही गया ! एक रोज सोचा एसे तो मौका मिलने से रहा फिर क्यों ना अपना एक ग्रुप बानाकर सुरु करे ? मैंने अपने एक मित्र दिनेश पहाडी जो नाटक में शोक रखते थे मीटिग कि और अपना विचार बताया वो तैयार होगये !उन्होंने अपने एक मित्र जो गड्वाली नहीं थे लेकिन नाटको के शोकीन थे नाम था क्रिशंचंद चंपुरिया हम तीनो ने मिलकर एक संस्था बनाई नाम दिया " पुष्पांजली रंगशाला "


पराशर गौर

Cont.....

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