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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

उत्तराखंडी ई-पत्रिका

Monday, February 2, 2009

कवियों की नज़र से

Myaro Pahad

AAva Dekha Mero Pahad
Mero pyaro Pyaro uttrakhand Himalaya ki god maa
door door bati Ondena Log yekh devaton Ki khoj maa
Badari Kedar yekh shiv Ko Kailash Chha
kan Kan maa Yekh devaton ko Bas Chha
Alaknanda Bhagirathi Or ganga yamuna
Khubsurat dandi kanthi Or pani Ka Jharana
Seedha sain Yekh Panch Pariyag Chhan
Rauntela fool Yekh Fyunli Burans Chhan

courtesy by Jyoti Godiyal, Mumbai
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चिट्ठी
राकेश भट्ट

कब्बि घर, कब्बि परदेश बिट्टी
कभि खट्टी त कभि मिट्ठी!
कुजणि कतनै उकाल उन्दार हिट्टी
अपणों कि याद दे जांदी रिंगि रिट्टी
नौनी तै झगुळी नौना तै सिट्टी
बरखा नि ह्वे कई मैनो बिट्टी
अब ज्यादा क्य लिखण दंदोल नि मिट्टी।
चिट्ठी! कब आली मेरा पहाड़ बिट्टी।

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हमारि चिट्ठी
ब्वे
विजयेन्द्र चन्द्र कुमाँई


नौ मैना तेरि पुटगि पर रैकि यी दुनियां मा आयो,
सदनि तेरि खुखली पर ख्यन्नु रायो॥
सिंचणी रौण मैं सणि तेरा आंसू कि बौछार
टकटकू बणैगेन तेरा दूध की छलार॥
तेरा प्यार कि फैकळि लिपटीं रों सदनि
मेरू मुण्ड तेरि खुट्यों मा झुक्यूँ रौ सदनि॥
माँ तु चन्दनै डाळि गुरौ सि लिपट्यों त्वे पर,
तेरि खु फैली बथौं बणी दुनिया पर॥
तेरि आख्योंन मैं उज्यळु दिखै।
तेरि जिब्यान मैं इन्सान बणै।
तेरि सेवा कन्नौ तै मैं प्राण भि त्याग द्यों।
हर बार तेरि प्वटगी सि फिर जम्म ल्यों।

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म्यार पहाड़ - त्यार पहाड़
विपिन पंवार "निशान"


म्यार पहाड़ - त्यार पहाड़,
हम सभी कु रौन्त्यालू पहाड़,
भेजुणु सभी तैं एक रैबार ,
हे लठ्यालौं कब लौटला,
तुम अपड़ा घार

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"शादी"

याद करा वे वक्त तैं,
जबरी ह्वै थै शादी,
ब्योलि मन मां खुश होंणी थै,
शुरू ह्वै थै बरबादी.....

पंडितजिन वे दिन जब,
बेदी मां करवै था फेरा,
बुरा दिन वे दिन बीटी,
शुरू ह्वैगे था मेरा.......

छकि-छकिक रोंणी थै ब्योलि,
लाल डोला मां बैठि,
ढोल दमौं था बजण लग्यां,
बारात जब वापिस पैटि......

घराती बाराती खुश होयां था,
खाणि पेणि खैक,
ब्वै का मन भारी खुशी थै,
नौना कु ब्वारी ल्हेक.........

कुछ दिन मां ब्वैन बोलि,
कनु लड़िक बिगड़ी मेरु ब्वारी ल्हेकी,
बस मां अब हमारा निछ,
अब मति भि मरिगी तैकी........

कुट्मदारी भौं कबरी मै फर,
अब जब किल्ल किल्कौंदी,
क्या बतौण हे मेरा दग्ड़यौं,
ब्यो का दिन की याद भि औन्दि.....

अब सुण्दु छौं मैं सब्यों की,
कंदुड़ बंद करी बौग मारिक,
हाड्ग्यों कु बणयुं सेळु,
अब थकि हारिक..........

जू मैं यनु जाणदु भुलौं,
ब्यौ करिक यना हाल होण,
नि करदु ब्यौ कतै ना,
कपालि पकड़ीक भी रोण......


स्वरचित:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
30.१.2009

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यह कविता मेरे पुस्तक "उकाल-उंदार" से है !

ये पहली पुस्तक होगी और है जो फॉरेन याने वेदेश में छापी गयी और जिसका विमोचन हिन्दुस्तान में गढ़वाल भवन देहली में हुआ !

खुशी

जब जब सुबरू घाम
मेरा पहाड़ की हुन्च्याली डाडियू थै छुंदी
वेकु तन मन खुश हवे जांद
तब
खिलिजंदी वेका रोम रोम
च्याखुली चुन्च्यान बैठी जन्दन
गाद गधिनी नचण बैठी जन्दन
तब मेरो समूचा पहाड़ ....
जी उठद एक नई उमंग का साथ !

पुगडियुमाँ हैल लागौन्द हल्या
सियूँ का पिछनै - पिछनै जांदी
मेरी माँ बैणी , दीदी भुली
लेकी हत्युमा नई बीज की पौध
जब जब वो धरती माँ डल्द
तब ...........
मुल - मुल हैन्सी धरती
वे बीज थै माटी का दगड मिलिकी
अपणी खुच्लीमा समोंद
तब एक हैंकि किस्स्मो आनद आंद !

अररर धरती......
वीकी मुख्डिम उमंग उत्साह की
एक नई लहर डाली फिर औणु बुलद
जब ..धरतिम अंकुर फुटदिन
जब वो उगदन
तब विथै लगद की
म्यारो पाहाड, मेरी धरती
कतका सुंदर चा , कतका बिगरैली चा

परासर गौड़ 4 जनवारी सन २००४
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लीस्सा पेड


म्यारा मुल्कका लोग
लीस्सा का पेड छ्न
जु .. घये जदिन पुटकवी बिटि
तब ...
किन बैठी जन्दन उकै
लीस्सा कि !

एक एक बूद
रस रस्सी चून्द
बणिक ल्वै ......
तब, वे थै कठठा कयेजांद
कनासतरू मा
फिर ..........
लगै कि बोली
सरे आम , उंचा दाम
करै जांद नीलाम
डैर अर दैशत का मारी
नि खुलुदु तब कुवी जुबान !


ई सोची सोची कि
सिलै जांदी वेका दांत
और दिखदै दिखद ..
फिर हैंकि चोटल
घये जांद वैकी आंत
घों घयेकी, घै -घै की
ल्वै का आंसू , पे - पे कि
बोइकी खुचिल्म्म लुड्की जांद
वो चुपचाप .................


कुछ दिनों को बाद
मिटीजांद विको नामो निशान
क्वी छौ यखम
कैल जलंम छौ यखम !

पराशर गौड़
२ जुलाई 1962
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फिर

व्याली रात कुई
चौका तीर / मिन्डलिम
लालटेन रखिगे
कखी ......
चूनों त नि आगे होला ?

तबित भोट मंगणु
अचानक रोशनी दिखैगे
फिर.....
छलणु आगे !

मि..... सुचुणु रौ
अपणा आप से पुछुणु रौ
की , अचानक
लालटेन लुडिकिगे
अन्ध्यरू हुयेगे
मि .. .....................
जखम छौ वखमै रैगेऊ
सुबेर सुणी ......की कुई म्यारो
भोट डालिगे ...!

पराशर गौड़
१८ नम्बर १९९८

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हीरा सिंह राणा - उनकी कुछ कवितायेँ

एक परिचय,

नाम ; हीरा सिंह राणा
गाओं : डधोई, मानिला
पढ़ाई ; माध्यमिक स्चूल तक
जन्म ; १६ सितम्बर १९४२.
शौक : गीत लिखना और गीत गाना ,
आज तक प्रकाशित पुस्तकों के नाम
1. प्योली और बुरांश
२. मनिले डानी.
3।मन्ख्यो पड्योव मैं


सुरा- शराबैल ,


सुरा- शराबैल हाय मेरी मौ ,
लाल कै दी हो,
छन दबलौं ठन ठन गोपाल कै दी हो,
न पये न पये कोओय सबुले ,
कैकी नि मानी ,
साँची लगौनी अकला- उम्र दघोडी नि आनी,
अफ्फी मैले अफ्फु हैणी जंजाल कै दी हो,
छन दबलौं ठन ठन गोपाल कै दी हो



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बौडा बीमार ह्वैक दिल्ली अयुं छ.
अपणी बुढ्ड़ी का दगड़ा फ़ोन फर बात कन् कू वैकु अंदाज. यू ही सांस्कृतिक अंदाज छ बात कन् कू हमारा उत्तराखण्ड का दाना मन्ख्यों कू. अगली पीड़ी उत्तराखंडी कम हि इंग्लिश मां ही बात कल्लि.


"बीमार बौडा"

हलो मैलि, हलो मैलि, कखैं मैलि तू जयीं,
अर् पता छ मैं पता, त्वैतैं काम प्यारू छ,
मैं फर निछ तेरु लोभ लान्लच,
ऐलि भैन्सु दूध देण छ लग्युं,
दुया द्वी छकि छक्किक दूध प्यान,
अर् भैन्सु बेचण मैलि,
नितर मैं यख बीटी बात कार्दौं,
ठीक छ, नि बेचण भैन्सु.

अब नि बच्दौं मैं, झंडा लगिगी मैं फर,
अब पक्की बात छ....
त्वै द्वी पैसो साग्वार निछ, अब देखि तू,
तेरी कनि दुर्गति होलि.

अर् वैकु बोलि, घोड़ा का खुटौं फर नाळी ठोके दे,
बाराती मां घोड़ा लीक जरूर जै,
नितर मैन गाळी खांणन....


लुकाँ, टक्क लगैक सुणिक,
यू संकलन छ दानी बात कू,
लिख्युं छ,
भुलौं मेरु अपणा हाथ कू,
एक दाना बुढया कू,
बात कन् कू अंदाज.


जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
11.2.2009 को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
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"माधो सिंह "काळू" भंडारी"

आमू का बागवान मलेथा, लसण प्याज की क्यारी,
कूल बणैक अमर ह्वैगि, वीर माधो सिंह भंडारी.

बुबाजी भड़ सोंणबाण "काळू" भंडारी, ब्वै थै देवी भाग्यवान,
कथ्गा प्यारु तेरु मलेथा, माधो जख केळौं का बगवान.

दगड़्या थौ चम्पु हुड्क्या, देवी जनि उदिना थै कुटमदारी,
नौनु प्यारु गजे सिंह, जू छेंडा मूं कूल का खातिर मारी.

बांजा पुंगड़ौं अन्न निहोन्दु, पेण कु निथौ बल पाणी,
उदिना बोदि माधो जी कू, मेरा मलेथा ल्य्हवा पाणी.

दिनभर निर्पाणि का पुंगड़ौं, करदा छौं हम धाण,
भात खाण की टरकणी छन, मेरी बात लेवा माण.

मलेथा की की तीस बुझौलु, ल्ह्योलु अपणा मलेथा मां पाणी,
निहोंणु ऊदास प्यारी ऊदिना, दूर होलि हमारा गौं की गाणी.

चंद्रभागा गाड बिटि कूल बणायी, कोरी मलेथा मूं छेंडू,
पाणी छेंडा पार नि पौंछि, माधो सिंह चिंता मां नि सेंदु.

भगवती राजराजेश्वरी रात मां, माधो सिंह का सुपिना आई,
कूल कू पाणी पार ह्वै जालु, मन्खि की बलि देण का बाद बताई.

मलेथा की कूल का खातिर, माधो सिंह न करि गजे सिंह कू बलिदान,
गजे सिंह का दुःख मां रोन्दि बिब्लान्दि, ब्वै ऊदिना ह्वैगि बोळ्या का समान.

ऊदिना न तै दिन दुःख मां ख्वैक, दिनि थौ बल मलेथा मां श्राप,
ये वंश मां क्वी भड़ अब पैदा नि ह्वान, जौन गजे सिंह मारि करि पाप.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
11.2.2009 को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७

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"पहाड़ पर बचपन"

अब तो यादों में बस गया है,
पहाड़ पर बिताया, प्यारा बचपन,
सोचणु छौं, कनुकै बतौँ,
आज, अतीत मां ख्वैक,
कनु थौ अपणु बचपन.

दादी, खाणौं खलौन्दि वक्त,
बोल्दि थै,
एक टेंड खाणौं कू नि खत्यन,
नितर तुमारा आंख फूटला,
रुसाड़ा का भीतर,
चूल्ला तक जाण की,
इजाजत कतै नि थै,
संस्कार माणा,
या अनुशासन समझा.

स्कूल दूर थौ,
अर् ऊकाळि कू बाटु,
बगल मां पाटी,
हाथ मां बोद्ग्या,
जै फर घोळिक रखदा था,
कमेड़ा की माटी.

चैत का मैना ल्ह्योंदा था,
अर् देळ्यौं मां चढ़ौन्दा था,
सुबेर काळी राति,
पिंगळा फ्यौंलि का फूल,
कौदे की कर करी रोठ्ठी खैक,
फ़िर जांदा था स्कूल.

अपणा सगोड़ा की,
मांगिक या चोरिक,
छकि छकिक खांदा था,
काखड़ी, मुंगरी, आम, आरू,
बण फुंड हिंसर, किन्गोड़, करौंदु,
खैणा, तिमला, घिंगारू.

कौथिग जांदा था,
बैसाख का उलार्या मैना,
झीलु सुलार अर् कुरता पैरिक,
देखदा था खुदेड़,
अफुमां रोन्दि,
बेटी-ब्वारी, चाची, बोडी,
कै जोड़ी ढोल-दमौं,
बगछट ह्वैक नाचदा बैख,
गोळ घूम्दी चर्खी,
चूड़ी, झुमकी,माळा की दुकान,
हाथु मां चूड़ी पैरदी,
बेटी-ब्वारी, चाची, बोडी,
ज्वान शर्मान्दि नौनि हेरदा लोग,
जैन्कि मांगण की बात चनि छ,
स्वाळि,पकोड़ी,खांदा लोग,
आलु पकोड़ी, जलेबी की दुकान,
अहा! कथ्गा खुश होन्दा था,
बचपन मां हेरि-हेरिक.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
10.2.2009 को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
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"उत्तराखंड"

पवित्र देवभूमि पौराणिक है,
नाम है उत्तराखंड,
"उत्तरापथ" और "केदारखण्ड"
मिलकर बना उत्तराखंड.

शिवजी का निवास यहाँ,
बद्री विशाल का धाम,
पंच बद्री-केदार और पर्याग,
प्रसिद्ध है नाम.

गंगा, यमुना का उदगम् यहाँ,
ऊंची-ऊंची बर्फीली चोटी,
चौखम्बा, पंचाचूली, त्रिशूली,
प्रसिद्ध है नंदा घूंटी.

गले मैं नदियों की माला,
सिर पर हिमालय का ताज,
बदन में वनों के वस्त्र,
उत्तराखंड पर हम को नाज.

मनमोहक हैं फूलों की घाटी,
विस्तृत हैं बुग्याल,
मन को मोह लेते हैं,
जल से भरे ताल.

नदी घाटियाँ खूबसूरत है,
देवताओं का वास,
तभी तो "मेघदूत" लिख गए,
महाकवि "कालिदास".

वीर-भडों की भूमि है,
किया जिन्होंने बलिदान,
उनको कितना प्रेम था,
किया मान सम्मान.

उत्तराखंड का प्रवेश द्वार,
पवित्र है हरिद्वार,
पुणय पावन नगरी,
जहाँ होती जय-जयकार.

कितनी सुन्दर देव-भूमि,
देखूं उड़कर आकाश से,
नदी पर्वतों को निहारूं,
जाकर बिल्कुल पास से.

जन्मभूमि है हमारी,
हैं हमारे कैसे भाग,
कहती है उत्तराखंडियों को,
शैल पुत्रों जाग.


जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
२३.७.२००८ को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
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"माँ की आँखों मैं आंसू" मेरी एक ऐसी रचना है जिसका एहसास आपको भी होता होगा अपनी माँ से दूर होने के कारण. माँ तो माँ ही होती है जितनी सेवा कर सको, जाने के बाद फिर नहीं मिलेगी और बस जायेगी यादों में.

"माँ की आँखों मैं आंसू"

उत्तराखंड के एक गोँव में,
अकेली माँ,
इन्तजार में है अपने बेटे की,
क्योंकि जिसे उसने,
बचपन में पाल पोसकर,
पढाया लिखाया,
कामयाबी की राह में,
आगे बढाया,
लेकिन एक दिन,
जवान होने पर,
वह उसकी आँखों से,
दूर चला गया,
रोजगार की तलाश में.

कैसी कसक है उसके मन में,
जिसे उसने बुढापा का सहारा समझा,
आज दूर है उससे,
लेकिन कासिस उसके मन में भी है,
माँ से दूर होने की.

वक्त निकालकर जब वह जाता है गाँव,
तो माँ से मिलने पर छलक जाते हैं,
माँ की आँखों में आंसू.

जगमोहन सिंह जायाड़ा, जिग्यांसू
२६.३.२००८ को रचित
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"उत्तराखंडी ढाबा"

सड़क किनारा देखि मैंन,
एक उत्तराखंडी ढाबा,
खाणौ खाणु वख मू बैठि,
एक विदेशी बाबा.

बोन्न लग्युं वू क्या मिलेगी,
कोदे की करारी रोट्टी,
देशी घी साथ में देना,
खूब बनाना मोटी.

ढाबा मालिक धन सिंह बोडान,
वे बाबा कु बोली,
अपने पहाड़ का शुद्ध घी है,
झट्ट पट डब्बा खोली.

बहुत ताकतवर होता है,
उत्तराखंड का कोदा,
तभी तो होता है,
उत्तराखंडी योद्धा.

वुड यु लाइक सर,
झंगोरा और झोळी,
एस प्लीज टेस्ट मी,
विदेशी बाबान बोली.

बड़ा प्रेम सी बाबान,
झंगोरू झोळी खाई,
हाव मच टेस्ट फुल,
वेन यनु बताई.

कल्पना मा देख्णु छौं मैं,
धन सिंह बोडा कू ढाबा,
कनु भग्यान वख मू बैठ्युं,
एक विदेशी बाबा.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
१७.७.२००८ को रचित
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"भूत भट्याई" जी हाँ, अपणा पहाड़ मा कै लोग बोल्दा छन मैन भूत देखि. दाना बुढया भी भूत की कथा लगोन्दा छन अर छोरा छारा टक्क लगेक सुणदा छन. अब तक ये कवि न भूत त देखि निछ पर कल्पना कन्नू छौं, अपणी यीं रचना का द्वारा:

"भूत भट्याई"

भूत भट्याई एक दिन मैकू, भुल्ला तू कख छें जाणु,
अपणा पिछने देख जरा तू,
मैं तेरा दगड़ा आन्णु.

यथ्गा सुणिक तब मैंन,
धौण अपणी घुमाई,
लम्बू सफ़ेद भूत मैकू,
पिछने नजर आयी.

खित-खित हैन्सि भूत मै फर,
ज्युक्ड़ी मेरी धक्क्दयाई,
कुल देवता नरसिंग तब,
झट पट्ट मै फर आयी.

फ़िर त क्या थौ भूत भागिगी,
फ़िर नजर नि आयी,
घौर जैक बात या मैंन,
दादा जी तैं बताई.

दादा जी बोंना सुण हे नाती,
भूत कुछ नी करदू,
जू डरीगी भूत देखीक,
जयुन्दा ज्यु मरदु.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
10.7.2008 को रचित
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"घत्त"

"घत्त" शब्द का प्रयोग उत्तराखंडी बोलते समय बहुत ज्यादा करते हैं. सोच रहा था किसी ने इस पर कोई गाना नहीं लिखा, शायद नरेंदर सिंह नेगी जी ने भी नहीं.


"घत्त"

धुर्पला कु द्वार टूटी,
भ्वीं मा पड़ी भत्त,
मरदु मरदु बचिगीयों मैं,
यनु आई घत्त,
यनु आई घत्त,यनु आई घत्त.....

मुख फ़रौ कू खाणों छोड़ी,
लोग ऐन झट्ट,
कनुकै बचें हे चुचा तू,
कनु आई घत्त,
कनु आई घत्त, कनु आई घत्त.....

मैन बताई अज्जों भी छ,
देव भूमि मा सत्त,
उन्की कृपा सी बचिग्यों मैं,
यनु आई घत्त,
यनु आई घत्त, यनु आई घत्त...

सच बोन्नी छें हे लठयाळा,
अज्जों भी छ सत्त,
भूलिग्यों हम धर्म कर्म,
कन्न लग्यां छौं खत्,
कन्न लग्यां छौं खत्, कन्न लग्यां छौं खत्....

भला बुरा भी ऐन मैमु,
ज्युकड़ी उन्की धक्क,
हे लठयाळा बचिगें तू,
जनु भी आई घत्त,
जनु भी आई घत्त,जनु भी आई घत्त....

टुटयाँ धुर्पला देखिक,
मेरा आँखा ह्वेन फट्ट,
कुल देवतों कू ख्याल मैकू,
तब आई झट्ट,
तब आई झट्ट,तब आई झट्ट....

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
७.९.२००७ को रचित
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उत्तराखंड में जब डीजल और बिजली की चक्की नहीं होती थी तो घराट(पनचक्की) से अनाज की पिसाई की जाती थी. पारम्परिक पर्वतीय प्रोद्योगिकी का सूचक घराट अब दम तोड़ रहा है. गाड के किनारों आज घट्ट(घराट) दयनीय अवस्था में हैं. हैस्को ने इसमें सुधार किया है. कई जगह पर लोग इससे बिजली बनाकर अपना गाँव को रोशन कर रहे हैं. क्या हम उत्तराखंडी अपने पारंपरिक ज्ञान अर धरोहरों का संरक्षण कर रहे हैं? कवि मन में घराटों (घट्ट) की दयनीय हालत देखकर कसक पैदा हो जाती है. लिख रहा हूँ अपनी अनुभूति कलम से:



"घराट"

गाड के किनारे खामोश घराट,
बिन पानी की कूल,
घट्वाला अब नहीं रहा,
मनखी गए अब भूल.

जलधाराओं से घराट,
खेलकर नाचता था,
पीस कर अनाज को,
दर्द किसी का बांटता था.

तभी तो किया होगा निर्माण इसका,
किसी ने महत्व जानकर,
जल शक्ति का उपयोग,
करने की मन मैं ठानकर.

अगर लौटा दें अतीत इसका,
तो फ़िर से घूमने लगेगा,
गाड मैं बहता हुआ जल,
फ़िर ब्यर्थ क्यों बहेगा.

अनंत तक अस्तित्व इसका,
जल शक्ति से भरपूर है,
उपेक्षित हो रहा क्यों?
इसका क्या कसूर है.

युगों युगों तक ये घराट,
सबके लिए बहु-उपयोगी हैं,
तनिक सोच ऐ मानव,
तू तो एक उपभोगी है.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
15.1.2006 को रचित
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पलायन सब कुछ लील चुका है पहाड़ पर, शेष रह गया है सूनापन, गाँवों में, खेत खलिहानों में, तिबारियों में, बूढे माता पिता की आँखों में, जहाँ बिखरा है आपका हमारा बचपन.

"पहाड़ से पलायन"

थम नहीं रहा है सिलसिला,
जिसने पैदा कर दिया है,
पहाड़ पर सूनापन,
जिसकी शुरुआत हो चुकी थी,
भारत की आज़ादी से पहले,
उत्तराखण्ड की नदियों में,
बहते निर्मल नीर की तरह.

कभी परदेश से,
पलायन करते हुए,
पहाड़ पहुँचते थे,
प्रवासी पहाड़ियों के पत्र,
मेहनतानें का मन्याडर,
माता पिता के पास,
जिनकी नजर लगि रहती थी,
गाँव में आए डाकिये पर,
और रहती थी आस.

जब पहाड़ पर जीवन,
पहाड़ सा कठोर था,
तब मीलों पैदल चलकर,
आते जाते थे गाँव,
लेकिन,
आज क्यों ठहर गया सिलसिला?
यादों में बसकर.

जिनको आज भी,
प्रवास में रहते हुए,
पहाड़ के प्रति है प्यार,
जिन्होंने सुना, पहाड़ पर,
घुघती का गीत,
घाटियों में गूंजता शैल संगीत,
हिल्वांस की सुरीली आवाज,
बांसुरी पर बजती,
बेडू पाको बारमासा की धुन,
जिन्होंने देखा पहाड़ पर,
ऋतु बसंत, फ्योंली अर् बुरांश,
पंच बद्री, पंच केदार, पंच प्रयाग,
देवभूमि में चार धाम,
ले लो लौटने का संकल्प,
जन्मभूमि की गोद में,
चाहे, एक पर्यटक की तरह,
पलायन की पीड़ा से दूर.

जगमोहन सिंह जयाडा "जिग्यांसू"
16.2.2009 को रचित
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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"बोडी बैठि बस मा" मेरि एक यनि रचना छ जू मकरैणी का मेळा पर आधारित छ. अतीत मा उत्तराखंड का लोग पंचमी, मकरैणी का मेला देवप्रयाग, ढ़ुंडप्रयाग,श्रीनगर, व्यासचट्टी , नहेण जांदा था. गौं गौं बिटि लोग पैदल चलिक या बस सी मेळा जांदा था. यूं मेळौं फर उत्तराखंड का कवियों का सुंदर पारंपरिक गीत भी लिख्याँ छन. भुलौं मैकु आज याद औन्दि यूं मेळौं की, पर क्या कन्न बौळ्या बन्णिक लिखणु छौं मन का उमाल.

"बोडी बैठि बस मां"

बोडी गै मकरैणी का मेळा, वीन खैन जलेबी केळा,
घुम्दु घुम्दु ख्याल आई, वीन दग्ड़्यौं तैं बताई.

चला अब घौर जौला, देर ह्वैगि क्या बतौला,
सब्बि डगड़्या बस मूं गैन्, सीट निथै खड़ू ह्वैन.

बोडिन नज़र दौड़ाई, सीट एक खाली पाई,
क्वी नि बैठ्युं यींमा क्यौकु, सैत खाली रखिं मैकु.

बोडी वख मूं बैठि ग्याई, एक घेरी जलेबी खाई,
तबरियों ड्राईवर दिदा आई, सीट मेरी वेन बताई.

बोडी बोन्नि हाथ जोड़दु, तेरु रिवाज आज तोड़दु,
मेरी सुण तू पिछनै बैठ, मैं दगड़ी सुदि नी ऐंठ.

ड्राईवर बोन्नु क्या बताण, बोडी त्वैन् घौर नि जाण.
हाथ जोड़दु बोल्युं माण, मैंन ही त या बस चलाण.

तब्रियों नौनु एक भट्याई, बोडी यख मूं बैठ बताई,
बोडी भीड़ मा भभसेणी, मन ही मन मा गाली देणी.

बोडी बैठि खिड़की फर, नींद आयी वींतैं सर,
बोडी देखि डगड़्या हैन्सणी, बोडी कन्नि खर खर.

बस सड़की फुंड जाणी, सब्बि अफुमा छ्वीं लगाणी,
सुपिना मां खोयिं बोडी, एक घेरी जलेबी खाणी.

दग्ड़्यौन बोडी घल्काई, खड़ु उठ उन बताई,
घौर अब हमारू ऐगि, एक फलांग सिर्फ़ रैगि.

घौर हम्तैं जागणा छन, सड़की फुंड भागना छन,
अगल्या साल फिर जौला, चूड़ी, मछली,फोंदणी ल्हौला.


जगमोहन सिंह जयाडा "जिग्यांसू"
२७-६-२००६ को रचित
भलि लगली त पर्तिक्रिया जरूर भेज्याँ
आपकू प्यार मैं तैं देलु उलार
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तेरे नैनों में ममता का अम्बर,

तेरे नैनों में ममता का अम्बर,
तेरी वाणी में अमृत की धारा।
तू एक पूर्ण चंदा,
मैं एक छोटा सा तारा।
हमको उबारा है ऐसे,
धर मां का रूप तूने।
जन्नत है तेरी गोदी,
तेरे कदमों में स्वर्ग मेरा।
अगर तू नहीं,
सिखाती जिन्दगानी का पाठ हमको,
कैसे हम पार करते ये तूफानी जल की धारा।
प्यारी मेरी मां, दुलारी मेरी मां वन्दनीय मां,
पूजनीय मां, तू स्वर्ग की है देवी,
मैं तेरा जहांन सारा।

सुनीता पाठक पुराना बाजार पिथौरागढ़
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चला जी----------
चला जी मैं बी लिकरा दगड़ा मा


छोड़ा यूँ बूढ़-बूढ़्यों रगड़ा मा

चला जी मैं बी लिकरा दगड़ा,

जोला द्वी परदेश बाजार दगड़ा मा

आला जब तुम ड्योटी बिठी

बणेक रखलू मैं, अलग-अलग खाणूं

खोला बैठिक दगड़ा मा

चला जी--------------,

रंदा तुम तख परदेश

लग्यूं रंदू मैं यख धाणीं पर

खुदेंदा तुम तख मैं बिगर

खूदेंदू मैं तुम बिगर फोंगड़्यों मा

नाश ह्वेगी म्यरा शरीर कु यख,

खिलोला प्रेम का गुल तख दगड़ा मा

छोड़ा यूँ बूढ़-बूढ़्यों जू लग्यां रंदा

चला जी----------------------,

छोड़ा यूँ तें जू लग्याँ रंदा-

दिन-रात झगड़ा मा,

चला जी मैं बी लिकरा दगड़ा मा

छोड़ा यूँ बूढ़-बूढ़्यों रगड़ा मा।।

देवेन्द्र कैरवान (शोध सहायक ) आई.आई.टी, मुम्बई
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आज अचानक दिल ने दस्तक दी,

आज अचानक दिल ने दस्तक दी
पुरानी यादो को ताज़ा कर एक हवा दी,
कहाँ से चले थे और कहाँ पहुँच गए,
क्या सोचा और क्या कर गए?
वादियों की गोद में जो बचपन बीता था,
शहर की भीड़ में वो आज गुमनाम है,
जिनसे बिछड़ने में कभी डर लगता था,
आज उन्ही के लिए हम अनजान हैं,
अपना प्रदेश छोड़ा , छोड़ी अपनी माटी,
उनसे हम दूर हुए, जहाँ से सीखी परिपाटी,
आज भावः विभोर मन उदास हो आया है,
बीती यादो में आज अपना बचपन याद आया है,
याद आता है वो बचपन जब पाटी पर लिखा करते थे,
और बात बात पर रूठ कर माटी से लिपटा करते थे,
बढ़ते बच्चे जब पड़ने लगे अ आ बाराखडी,
फ़िर वही एक उदासी मन में आने लगी ,
की पढ़ लिखकर जायेंगे कहाँ, और कहाँ करेंगे नौकरी,
इसी सोच और पीड़ा ने न जाने कब बड़ा बना दिया,
और गाँव की माटी ने परदेश के लिए विदा कर दिया,

Writer: Vivek Patwal
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मेरे कवि मन में पहाड़ के हर पहलु पर कसक पैदा होती है और प्रेरित होता हूँ अपनी कलम से लिखने को, क्योंकि आपका स्नेह मिलता रहे...आपका कवि मित्र लिखता रहे...उत्तराखंडी "प्रवासियों की पीड़ा" पर मुझे कविता लिखने को प्रेरित किया माननीय चिरपरिचित श्री भीष्म कुकरेती जी ने.....

"प्रवासियों की पीड़ा"

देश के महानगरों में,
उत्तराखंड के लाखों लोग,
झेल रहे हैं प्रवास,
प्यारे पर्वतों से दूर,
जहाँ चाहकर भी नहीं मिलता,
पहाड़ जैसा परिदृश्य,
जनु,
ठण्डु पाणी, ठण्डु बथौं,
हरीं भरीं डांडी,हिंवाळि कांठी,
बांज, बुरांश,घुगती,हिल्वांस,
मनख्वात, भलि बात,पैन्णु पात,
परिवार अर् दगड़्यौं कू साथ,
ढोल-दमौं, मशकबीन बाजू,
डोला पालिंग, रंगमता पौंणा,
औजि का बोल अर् ब्यौ बारात,
अर् झेल्दा छौं,
हो हल्ला, मंख्यों कू किबलाट,
मोटर गाड़ियौं कू घम्म्ग्याट,
जाम मा जकड़िक,
पैदा होन्दि झुन्झलाट,
सब्बि धाणी छोड़िक,
पराया वश ह्वैक,
ड्यूटी कू रगरयाट,
सोचा, यानि छ हम सब्बि,
"प्रवासियों की पीड़ा",
अपन्णु घर बार त्यागिक,
कनुकै ह्वै सकदन,
हमारा तुमारा ठाट बाट.

जगमोहन सिंह जयाडा "जिग्यांसू"
19.2.2009 को रचित
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
(सर्वाधिकार सुरक्षित
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एक उत्तराखंडी की पाती तुमारा नौं"

प्यारा दिदा, भुल्लौं,
छोड़ कूड़ी बांजा डाळ के,
हमन सोचि क्या रख्युं छ,
वे पापी पाड़ मां,
जख गाळ घात लग्दि,
अर् पूजेंदा छन,
जख,
हैंकारी जैंकारी देवता,
विश्वास करदा छन,
झूठा बाक्यों फर,
तब कच्योन्दा छन,
बेला, बोगठ्या,बाखरा,
भौ भल्यारी का खातिर.

अपणा पाड़,
तब जांदा छन आप,
जब पित्र पूजिक,
पठाळ लगौन्दा छैं,
पित्र कूड़ा फर,
अर् यत् तब जब,
देवता, गाळ-घात पूजण,
जब बुरी बित्दि परदेश मां.

नरेन्द्र कठैत जी बोन्ना छन,
गौं वाळौं कू,
"जै दिन तुम गौं छोड़ कै सैर में गये थे
तिस दिन बि तुमनें इनी बोला था,
कि पाड़ में सुबिधा नै है,
पर सैरमा ऐ के तुमनें क्य फरकाया,
सैरमा ऐकी बि तुम गौं पर चिब्ट्यां राया,
साक भुज्जी से लेकी चुन्नू झंगर्याळ तक,
गौं बिटि मेटिमाटि लाया,
अल्लू तुमनें गौंमा बि थींचा,
अर सैरमा बि थींचता है,
गौं का प्याज तुमनें मीट्ठू नै चिताया,
अर सैर के पिर्रा प्याज ने,
तुमको घड़िघड़ि रुलाया,
अब तुमी जबाब देवो,
तुमनें सैर में क्य फरपाया"?

मेरा समझ मां,
त एक बात आई,
सौ प्रतिशत सच छ,
कुल मिलैक,
जू कठैत जी न बताई.

जगमोहन सिंह जयाडा "जिग्यांसू"
19.2.2009 को रचित
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
(सर्वाधिकार सुरक्षित

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