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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, February 2, 2009

काफळ पाको मिन नि चाखो

काफळ पाको मिन नि चाखो

चैत का मैना काफळ पाकण लगदा। ललांगा अर भूरा-भूरा रंग का रसीला काफळुं से लकदक डाल्यूं मा प्वथील भी चुंच्याण लगदां। इनी प्वथीलूं मा वि एक ॔काफळ पाको मिन नि चाखो’वास के वातावरण मा उदासी फैलै देन्दी। जब तक बणूं मा काफळ रौन्दा तब तक यु प्वथील ॔काफल पाको मिन नि चाखो’ ही बासणू रैन्दु। ये का पिछनैं एक कथा प्रचलित च- एक बार की बात च। काफल पाकण का मैना एक स्त्री हुरमुर मा जल्दी उठि की काफल बिनणा का वास्ता जंगल मा गै अर बण बटिन टोकरी मा पक्यां-पक्यां काफल भरि के घर मा ल्है। घर मा वि द्वी माबत छा-स्त्री अर वींकी छ्वटि नौनी। बण बटिन काफळ ल्यौण-ल्यौण द्वफरा को चमाकी को घाम लगी। पहाड़ की स्ति्रयूं तैं सोफतो कख होन्दु? घर पहुंच के वो पुंगड़ा का वास्ता तैयार ह्वेगे। जांद-जांद विन अपणी छ्वटि नौनी तैं, जु कि अपणी मा कि भौत आज्ञाकारी छै, तैं समझाई- ॔बेटी, मेरी बण बटिन ल्यांयी यु काफळ की भरीं टोकरी रखीं। येकू ध्यान रखि। इमा बटिन काफळ आफी नि खै। मि पुंगड़ा बटिन औंण पर त्वे तैं अपणा आप काफळ खाणूं कु देलू। छ्वटि अर मासूम नौनी अपणी माँ का जाणा का बाद काफळ की टोकरी का जग्वाळ मा बैठी। लाल-लाल अर रसीला काफळ देखि की बच्ची कू ज्यू ललचाई अर तैंकु काफळ खाणू कु ज्यू बोलि। तैंका गिच्चा मा पाणी औंण लगी पर माँ की बात वीं तै ध्यान ऐगे। डर का मारा बच्ची न एक भी काफळ गिच्चा मा नि डाली अर मा कु इन्तजार करण लगि। मा तैं घर औंण-औंण देर ह्वेगी। चैत का घाम अर गर्मी का कारण काफळ सूखण लगी। सुखण पर काफळ पिचकण अर सिकुड़ण लगी। सिकुड़ण पर काफळ टोकरी मा कुछ तौळा तक दबीगे। माँ कु घर वापस औंण को समय ह्वेगे। नौनी डर का मार सहमण लगीगे कि काफळ कम ह्वेगी अर माँ वी तैं डांटली। पुंगड़ा बटिन वापस औंण पर माँ न देखि कि काफळ सवेरी की तुलना मा हमारि कम हुयां छा। पुंगड़ा का काम अर गर्मी से माँ तैं भारी पित्ती आयीं छै। टोकरी मा काफळ कम देखि कै माँ न नौनी से पूछि- ॔बेटी ये टोकरी का काफळ तिन खाई? नौनी न सच बताई कि वीन एक भी दाणी काफळ की मुख मा नि धरी। नौनी बिल्कुल सच बोलणी छै। वीं कि माँ तैं वि नि होई। माँ न थकान का गुस्सा गुस्सा मा अपणी निरपराध नौनी तैं बिना सोच्यां-समझ्यां इतना जोर से ठैंकुठैं मारी की बच्ची की तुरन्त मौत ह्वेगे। साम का समय घाम डूबि अर गर्मी कम ह्वेगे। ठण्डी हव्वा चलण लगी। माँ का अपणी प्यारी नौनी का वियोग मा र्वे-र्वे बुरा हाल छा। माँ का आंसू का संस्प अर ठण्डी हव्वा मा मुरझांयां काफल फिर ताजा ह्वेगे। काफळ की आधी टोकरी मा काफळ फिर फूलिकै अपणी पुराणी स्थिति मा ऐगे अर टोकरी फिर उतिगै भरी जितना कि सवेरि मा छै। टोकरी माँ काफल भर्यां-भर्यां लगण लग्या छा। माँ न जब टोकरी काफळ से भरीं देखि ता सत्य बात समझ मा ऐगे अर पछताण लगी। माँ तैं अपणी प्यारी निर्दोश नौनी का मौत से इतना बड़ो सदमा लगी कि वा सनकी ह्वेगे अर चिल्लाण लगीगि-॔पुर-पुतई पुरै-पुरै’ अर्थात मेरी प्यारी बच्ची काफळ टोकरी मा पूरै च। मिन त्वेतैं गलत समझी। यनि चिल्लादीं-चिल्लादीं माँ कि भी मौत ह्वेगी। मरि के माँ अर बेटि द्वियी प्वथील बणिके आसमान मा उणाण लगी। चैत का मैना मा काफळ पाकण का समय पर यि द्वियी माँ-बेटि प्वथील बणिकि करूण स्वर मा आज भी बासदा -बेटि प्वथील बोलदी - ॔काफल पाको मिन नि चाखो’। माँ प्वथील उत्तर दैंदी-॔पुर-पुतई पुरै-पुरै’। काफळ पकण का मैना तक यि द्वियी ये ही बासदा। ये लोक कथा से हमतैं यि ि मिलदी कि हमूं तै क्वी बी काम बिना समझ्यां-बूझ्यांल नि कन चैन्दि। ये कु परिणाम भौत दुःखदायी होन्द।

सौजन्य से :- डॉ० राके गैरोला

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अतीत में उत्तराखंड मे किसी जगह माँ और बेटी साथ रहती थी. माँ जंगल से काफल लाई और बेटी को कहा मैं खेतों मे काम करने जा रही हूँ. इन्हे खाना मत. दिन मे माँ जब लौटकर आई तो उसने देखा काफल कम हो गए हैं. जबकि वे गर्मी के कारण सिकुड़ गए थे. माँ को लगा बेटी ने काफल खाए हैं तो उसे बहुत गुस्सा आया, उसने बेटी को थप्पड़ मारा तो वह मर गयी. थोडी देर बाद में माँ भी गम से मर गयी. कहते हैं जब काफल पकते हैं तो दोनों पक्षी के रूप में जंगल मे विचरण करते हुए आवाज करती हैं:

"काफल पाकी मैंन नी चाखी"

द्वी पोथ्ली बास्दी छन, उत्तराखंड का जंगल्लू मा,
काफल की बार, हे दग्दियों...
माँ बेटी थै बल यी, पर ब्वे न मारी नौनी,
काफल का बाना,
वैका बाद माँ न, ख्वई दिनी पराण,
काफल का बाना,
बेटी बोल्दी छ, काफल पाकी मैंन नी चाखी,
अर् माँ बोल्दी छ, फुर्पतैं- फुर्पतैं....

जगमोहन सिंह जयाडा, जिग्यांसू
१५.६.२००८ को रचित

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