ह्वैगि बल आज,
उल्टी गंगा बगणि छ,
सच्ची बात बुरी,
बुरी बात भलि लगणि छ,
दाना बुढ्या त आज,
यनु बोन्ना छन,
नया जमाना की चाल देखि.
चौक मा गोरू निछन,
धारौं फर निछ पाणी,
तिबारी डिंडाळी टूटणी छन,
आज दम तोड़दु जाणी.
बल्द अर हळ्या हर्चणा,
पुंगड़ी पाटळी बंजेणी,
संस्कृति कू त्रिस्कार होणु,
नयी संस्कृति जन्म लेणी.
भै बन्धु मा मेल नी,
आपस मा कटेणी मरेणी,
अपणौ सी नफरत,
बिराणौ दगड़ी खाणी पेणी.
सूर्यास्त होन्दु धार पिछनै,
मनखी दारू मासू मा मस्त,
दानव संस्कृति राज कनि,
मनख्वात मरिक होणी अस्त.
देवतौं कू मुल्क हमारू,
कथगा निर्दयी ह्वैगी,
बाग बिल्कणा छन,
सच मा "भौंकुछ" ह्वैगी.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित १३.६.२०१०)
दिल्ली प्रवास से..(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल)
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