डूबिं छ टीरी,
कैकु चूकि, कैकु फीरी,
क्या थौ वींकू कसूर?
स्वर्ग मा छन सुदर्शन शाह,
जौन बसाई थै टीरी,
डूबिं टीरी देखणा होला,
जख बणि छ झील.
डुब्याँ छन "पाणी का पेट"
जौं भै बन्धु का,
प्यारा- प्यारा गौं,
ऊँका आँखौं मा आंसू,
आज औन्दा छन,
जब-जब औन्दि याद,
मन होन्दु छ ऊदास,
बिंगा ऊँका मन की बात,
घर बार त्यागि,
कै हाल मा होला?
टीरी, जख बिति होलु,
जौंकु प्यारू बचपन,
आज भी बसीं छ मन मा,
कनुकै भूली जाला,
टीरी की मिठै "सिंगोरी",
ऊंचू घंटाघर,
दोबाटा, कंडळ कू सेरु,
चणौ कू खेत,
टीरी कू प्यारू बजार,
जू डुब्याँ छन आज,
"पाणी का पेट".
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित, दिनांक:११.६.२०१०)
दिल्ली प्रवास से..(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल)
No comments:
Post a Comment
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments