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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, July 27, 2009

गाँव छोड़ शहर को धावे

गाँव छोड़ शहर को धावे
करने अपने सपने साकार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार
निरख शहर में जन-जन को
टूट जाता अरमां भरा दिल
भटक रहें हैं शहर शहर
पर पा न सके मंजिल
अपनेपन का अभाव दिखता
विलुप्त हुआ यहाँ सदाचार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार

निज स्वार्थपूर्ति में लगे सब
अब यहाँ कौन करता भला उपकार
ढूंढ़ रहे हैं यहाँ अपनापन
पर मिले कहाँ अब अपना प्यार
अरमानों की गठरी लादे हुए
भटक रहे हैं बनकर बेरोजगार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार


कविता रावत
भोपाल

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