Wednesday, July 22, 2009
पहाड़- धार्मिक आस्था के शिखर
शहर की दौड़-धूप से बदहाल होती जिंदगी के बीच जब हम सुकून के दो पल तलाशते हैं तो मन को निराश होना पड़ता हैं. ऐसे में पहाड़ का नाम जेहन में आते ही हरे-भरे पेडों की छांव, खेत- खलियान, गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी बलखाती पगडंडियों, पत्थरों से बने सीधे- टेढ़े घर, गौशालों में बंधे गाय, भैंस, बकरी, भेढ़ आदि की धुंधली तस्वीर मन में उमंग भर देती है. शहरी सपाट जीवन के बीच जब हम गाँव के सरल, सोम्य मिलनसार लोगों का ख्याल आता है तो मन ख़ुशी से भर उठता है और कदम उनकी और भागने लगते हैं.
उत्तराखंड से सुदूर भोपाल में रहते हुए भी मेरा आत्मिक लगाव अपने गृह नगर पौड़ी गढ़वाल के विकास खंड बीरोंखाल के गाँव नऊ से हमेशा से बना रहता है. कभी किसी धार्मिक अनुष्ठान (देवी-देवता पूजन), शादी समारोह या जब गर्मियों में बच्चों की स्कूल के छुट्टी होती हैं, तब मेरी प्राथमिकता गाँव ही होती है. गाँव मुझे बचपन से ही अपनी और खींचा करते हैं. ऊँची- नीची पहाडियों में बसे गाँव मुझसे कुछ कहते के हैं; इन गाँव को देखते हुए सोचती हूँ, इनमे सबसे पहले कौन आये होंगे? कैसे रहते होंगे आदि सवाल बार-बार मन में कौंध उठते हैं. उस समय आज के तरह कोई भी तो साधन न थे. यह सोचकर मन पहाडों में बसने वालों के बीच खो जाता है. ऊंचे-नीचे, उबड़-खाबड़ पहाडों के गाँव में जो एक सामान विशेषता है वह इन गाँव के आस-पास पानी के श्रोतों का होना है, जो कि प्राचीन सभ्यताओं में देखने को मिलता है।
गाँव की संस्कृति, पहाडों की हवा, पानी और उनकी बीच सीधी-साधी जीवन शैली के बीच अपनेपन से ओतप्रोत, सरल स्वभाव के लोगों के बीच अपने को पाकर मन को अपार शांति मिलती है. उनके दुःख -सुख में शामिल होकर उनकी भोली-भाली, सीधी-साधी बातें, पहाडों की कहानियां सुनना सबकुछ बहुत अच्छा लगता है. इन सबके बीच यदि हम इन गाँव के लोगों की जिंदगी में झाँकने की कोशिश करते हैं तो हर घर में एक कहानी जरुर मिल जाती है.
गाँव में देवी-देवता पूजन का विशेष महत्व है. पूजा की विविधता और अपने-अपने देवी-देवताओं के पूजन के बावजूद पूजा करने का ढ़ंग अलग-अलग न होकर एक ही है. आज भी गाँव के लोग चाहे वे किसी भी देश-परदेश में हों और चाहे कितने भी पढ़-लिखकर बड़े-बड़े पदों या व्यसायों से क्यों न जुड़े हों; शायद ही कोई अपनी संस्कृति को भूला हो।
हमारी यात्रा का उद्देश्य भी धार्मिक था. हम अपने देवता पूजन में शामिल होने गाँव गए. गाँव में देवताओं को पूजने का अपना अलग ही ढ़ंग है. जहाँ पहले दिन पूजा कि जाती है, वहीँ दुसरे दिन सुबह अपने इष्ट देवता को लेकर हरिद्वार या अन्य तीर्थ स्थानों में स्नान करने के लिया ले जाया जाता है. हमारी यात्रा भी गाँव से प्रारंभ होकर पहले हरिद्वार और उसके बाद जोशीमठ तक थी. इतने लम्बी यात्रा में आने-जाने में जहाँ पहले महीनों लग जाया करते थे, वहीँ आज गाँव में सहज आवागमन के साधनों के कारन यह यात्रा महज ३-४ दिन में ही संपन्न हो जाती है. गाँव से १०-१२ घंटे की यात्रा के बाद हम हरिद्वार पहुंचे. हरिद्वार जो कि ऋषि मुनियों तथा सिद्ध पुरूषों की तपस्थली रही है. यह पवित्र वसुंधरा विश्व की प्राचीनतम तथा पौराणिक धरोहर है, यही कारण है कि आज हरिद्वार विश्व के मानचित्र पर अपना अलग ही स्थान रखता है. इसका नाम हरिद्वार कैसे पढ़ा, इस विषय में अनेक किसे-कहानियां प्रचलित हैं, जिसमें प्रसिद्ध बद्रीधाम का उद्गम द्वार होने से इसे 'हरिद्वार' कहा गया है.
गंगा हमारी भारतीय संस्कृति और गौरवपूर्ण सभ्यता का प्रतीक बनकर हमारी आस्था, परम्पराओं और विश्वास से जुड़ी है. अपने खास सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध हरिद्वार पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र है. धार्मिक महत्व के साथ-साथ हरिद्वार का पर्यटन महत्व भी कम नहीं है.
रात्रिविश्राम के बाद हम अपनी आगे की यात्रा जो की जोशीमठ की थी, सुबह-सुबह निकल पड़े. हरिद्वार से ऋषिकेश होते हुए हम देव प्रयाग, कर्ण प्रयाग, रुद्र प्रयाग और नन्द प्रयाग के दुर्गम पहाडों और घाटियों के उतार-चढावों को लांघते हुए सपनीली सड़क में लुढकते, बलखाते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे. सड़क के चारों ओर जब भी नजर घूमती पहाडों का अद्भुत सोन्दर्य, तलहटी में बहती नदियाँ पावन भागीरथी, मन्दाकिनी, अलकनन्दा, सबकुछ मन अपनी को ओर आकर्षित कर रही थी.
जोशीमठ से ठीक पहले नेशनल थर्मल पावर प्रोजेक्ट का प्रगतिरत विद्युत उत्पादन सयंत्र देखकर हमारे उत्तराखंड के विकास की ओर बढ़ते कदमों की झलक दिखाई दे रही थी, जिसे देख बहुत अच्छा लगा.
जोशीमठ से ठीक पहले नेशनल थर्मल पावर प्रोजेक्ट का प्रगतिरत विद्युत उत्पादन सयंत्र देखकर हमारे उत्तराखंड के विकास की ओर बढ़ते कदमों की झलक दिखाई दे रही थी, जिसे देख बहुत अच्छा लगा.
जोशीमठ से ठीक पहले नेशनल थर्मल पावर प्रोजेक्ट का प्रगतिरत विद्युत उत्पादन सयंत्र देखकर हमारे उत्तराखंड के विकास की ओर बढ़ते कदमों की झलक दिखाई दे रही थी, जिसे देख बहुत अच्छा लगा.
जोशीमठ पहुँचने पर हमने सबसे पहले नरसिंह भगवान् के दर्शन कर वहीँ बने एक निश्चित स्थान पर स्नान किया. यहाँ से बदरीधाम के दूरी मात्र ४० किलोमीटर है. यहाँ से बद्रीनाथ की गगनचुम्भी विशाल दैत्यकाय पहाड़ जिनमें बमुश्किल एकाध पेड़ ही दिखाई दे रहे थे, बड़ी-बड़ी पथरीली चट्टानों को अपने में समाये हुए आसमान को छूने को आतुर बड़े ही दमख़म के साथ गहरी घाटियों के सहारे तनकर खड़े होकर अपने देवभूमि होने का आभास करा रहे थे, जिसे देख श्रद्धा और भक्तिभाव् से शीश झुक जा रहा था. जोशीमठ में रात्रिविश्राम के उपरांत हमने तड़के गाँव की ओर
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