उत्तराखण्ड की संस्कृति का प्रतीक है,
बजाते हैं औजि, जब होता है शुभ काम,
देवालयों में भी बजता है,
और बजता है, जहाँ हैं चार धाम.
ढोल का अपना साहित्य है,
जिसे कहते हैं ढोल सागर,
ढोल की तालों का विवरण है जिसमें,
जैसे गागर में हो सागर.
औजि ढोल बजाकर, सांकेतिक भाषा में,
एक दूसरे से बात करते थे,
बजाते थे जब, तब ढोल की तरंगों से,
पेड़ झूमते और पात झरते थे.
उत्तराखण्ड के हर गाँव में,
बजाते हैं औजि, मस्त होकर,
शबद,रांसू,नौबत,फाग अर् धुयाँळ,
नाचते हैं उत्तराखंडी,
प्यारे पहाड़, कुमौं अर् गढ़वाळ.
जरूरत है आज इसके,
अस्तित्व बचाने की,
हो रहा है लाचार,
अपना रहे हो जिनको,
वो अपनी संस्कृति के,
नहीं हैं हो सकते आधार.
(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
4.8.2009
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