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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, August 17, 2009

गथ्वाणि"

बात उन दिनों की है जब चन्दु की दादी जीवित थी. पहाड़ में कड़ाके की ठण्ड थी और ऊंची ऊंची पहाड़ियौं पर भारी बर्फ़बारी हो रही थी. चन्दु के सारे परिजन ठण्ड के मारे चूल्हे को घेर कर आग सेक रहे थे. पॉँच दिन से लगातार बरखा होने के कारण बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया था. बार्गुर और चन्द्रबदनी का डांडा सफ़ेद बर्फ की चादर ओढ़ चुका था. पौड़ी गढ़वाल का सामने दिखता दृश्य मनभावन लग रहा था. खिर्सू से लेकर खाण्ड्यौंसैण और सितौन स्यूं तक खूब बर्फ पड़ी हुई थी.


ठण्ड में तो बहुत भूख लगती है. चन्दु के पेट में भूख के कारण चूहे कूद रहे थे. चन्दु अपनी दादी जी से बोला "दादी...दादी...आज गौथ ऊस्याकर "गथ्वाणि" तो बना दे." चन्दु की बात सुनकर दादी झट्ट से बोली "ये छ्वारा का पेट फर त आग लगिगि, हाथ ध्वैक फटाफट बोंनु छ, भूख लगिगि". चन्दु दादी की बात सुनकर दादी जी से बोला "दादी.. मैन क्या कन्न..कुजाणि क्योकु मेरि पोट्गी फर भूख की बणांग लगणी छ". दादी जी के मन में कुछ दया का भाव उभरा और बोली " चन्दु मेरा नाती...तू फिकर न कर...ठैर धरदु छौं फूल्टि भरि गौथ चुल्ला फर "गथ्वाणि" का खातिर." चन्दु खुश होकर अपनी दादी से लिपट गया.

चन्दु की दादी जी ने फूल्टि में गौथ रखकर चूल्हे में चढा दिए. चन्दु चूल्हे में मोटी मोटी लकड़ी लगाता हुआ फूल्टि में रखे गौथ के थिड़कने की इन्तजार कर रहा था. कभी वो चूल्हे की तरफ देखता और कभी फूल्टि की तरफ. फूल्टि के ऊपर रखा ढक्कन खन-खन ऊपर नीचे होने लगा और भाप भी निकलने लगी. चन्दु की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. दौड़कर अपनी दादी जी के पास गया और कहने लगा "दादी...दादी...थिड़कण लगि फूल्टि". दादी जल्दी से बोली "अरे छोरा...फूल्टि न...गौथ बोल".

चन्दु इंतज़ार करते करते थक गया. उसने चुपके से से फूल्टि का ढक्कन खोला, फूल्टि चूल्हे से गिरते गिरते बची. कर्छुले से थोड़ा सा गौथ निकालकर उसने चखे. अभी भी गौथ पूरी तरह से पके नहीं थे. गौथ जितने देर तक थिड़कें तो "गथ्वाणि" का स्वाद उतना ही अच्छा होता है. "गथ्वाणि" पीने से तो पथरी ठीक हो जाती है. जिसे पथरी की शिकायत हो तो उसके लिए "गथ्वाणि" अचूक औषधि का काम करती है.

शाम हुई तो चन्दु की दादी जी ने "गथ्वाणि" बनाया. कुछ गौथ बचाकर उनकी भरीं रोठी बनाई. चन्दु अपनी दादी जी से बोला "दादी...दादी...थोड़ा कन्क्रयाळु घ्यू त दी भरीं रोठी का दगड़ा." दादी बोली "अरे! ये छोरा की बात क्य बोन्न, कनि स्याणि छन ये तैं लगणी." चन्दु की दादी ने घरया घ्यू की ठिक्की गाड़ी अर् बोलि "खा मेरा चन्दु छक्किक "गथ्वाणि" अर् कन्क्रयाळु घ्यू".

चन्दु की दादी आज जीवित नहीं हैं. उसको दादी जी का वो जमाना रह रहकर याद आता है. पहाड़ से दूर परदेश में कहाँ मिलता है पहाड़ का खाना. पहाड़ कू कन्क्रयाळु घ्यू अर् "गथ्वाणि" अब कल्पना मा ही रैगि. चन्दु आज ज़माने के साथ बदल गया. अगर साथ हैं तो बचपन के यादें "गथ्वाणि" के रूप में.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
12.8.2009

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