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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Wednesday, September 29, 2010

दारू देवी की कृपा सी

भौत दिनु बिटि,
बचपन कू,
एक लंगोट्या यार,
जैका दगड़ा,
ऊ प्यारा दिन बित्यन,
आज तक नि मिलि फेर,
अचाणचक्क,
मैकु वैकि याद आई,
वे लंगोट्या यार कू,
कैमु माग्युं,
मोबाइल नम्बर खुजाई,
फट्ट सी नंबर मिलाई,
वख बिटि लंगोट्या यार की,
गळबळ आवाज आई,
हे भाई कू छैं तू?

मैन बोलि, हे मकानु दा,
मैं छौं रे मैं, तेरु बचपन कू,
लंगोट्या यार खिम सिंह,
कन्नु छैं हे लाठ्याळा,
याद नि औन्दि त्वैकु मेरी?

अरे! दिदा क्या बोन्न,
मैकु भी तेरी,
याद भौत औन्दि छ,
जब रंदु मुक्क ढिक्याण पेट,
औन्दि छन मन मा ऊदौळि,
क्या बोन्न भुला अब,
शरील भी बुढया ह्वैगी,
अब "दारू देवी की कृपा सी",
जिन्दगी कटणि छ,
पैलि एक गिलास पेंदु छौं,
फेर पलंग मा सेन्दु छौं.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित,

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