सुपिना मा देखि मैन,
पाड़ पिड़ान घैल ह्वैक,
छट पटाण थौ लग्युं,
मैन पूछि, हे पाड़ जी क्या ह्वै?
पाड़जिन मैकु बताई,
आज मैं बिमार छौं,
पर कै सनै मै फर,
कतै दया नि औन्दि,
मेरा कपड़ा फटिग्यन,
मेरा बदन फर चीरा धर्यलन,
मैकु सदानि बुखार रंदु छ,
पीठ फर मेरा बणांग लगौन्दन,
क्या बतौँ, भौत सतौन्दन.
मैन बोलि पाड़ जी,
आपकी दुर्दशा देखिक,
मेरा मन मा भि,
भारी पिड़ा छ,
पर आज मनखि,
भारी स्वार्थी अर लालची ह्वैगी,
आपकी दुर्दशा वैका हाथन ह्वै.
हाँ यू सच छ,
हे कवि "जिज्ञासु",
क्वी नि पोंज्दु,
मेरा डळबळ औन्दा आंसू,
यनु न करा, हे मनख्यौं,
मैं "खाड्डु अर बाखरू नि छौं"
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित,
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