जिन्दगी चन्नि छ सब्यौं की,
मन मारिक जन भि चलु,
महंगाई की मार मा,
कनुकै पळलि आस औलाद,
हमारा देश का सब्बि मनखी,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.
कटणि छ जनता की जेब,
जौंका खातिर,
ऊ सब्बि ठगणा छन,
भोली-भाली जनता तैं,
राजनीती की आड़ मा,
सत्तापक्ष अर विपक्ष द्वी,
सत्ता का खातिर,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.
पहाड़ कू घर्या घ्यू ,
दाळ, गौथ अर तोर,
छौंकण का खातिर जख्या,
कख बिटि मिललु,
सोचदा छन ऊ,
जू नि रन्दन पाड़ मा,
कु होलु यनु रिश्तेदार,
प्यारा पाड़ मा,
जू भेजि द्यो कैमु,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.
उत्तराखंडी कवि,
लिख्दा छन पहाड़ फर,
रन्दा नि छन पाड़ मा,
कल्पना करदा छन,
कविता लिखण सी पैलि,
कनुकै लिखौं सुन्दर कविता,
लग्याँ छन जुगाड़ मा.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(२८.७.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
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