उठाई मैन कलम,
लिख्यन मन का भाव,
प्रयोग करि अपणि भाषा,
यीं आस मा,
फललि फूलली,
"अपणि बोली भाषा",
यछ मेरा कवि मन की आशा.
भलु नि होन्दु भै बन्धु,
"अपणि बोली भाषा" कू त्रिस्कार,
संस्कृति कू नाश होन्दु,
जड़ सी मिटदा संस्कार.
अंग्रेजुन विश्व स्तर फर,
करि अपणी भाषा कू प्रसार,
आज विश्व स्तर फर होणु छ,
उंकी भाषा कू विस्तार.
देवतौं कू मुल्क हमारू,
प्यारू कुमायूं अर गढ़वाल,
कायम रलि भाषा संस्कृति?
मन मा ऊठणा छन सवाल.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
३.७.२०१० को रचित....दिल्ली प्रवास से
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