लोक के तंत्र में ‘सीएम’ वंशीय प्राणियों की असंतुष्टि का असर क्लासरूम तक में पहुंच चुका था। मास्टर जी बेंत थामे थे। मगर, बेंत का मनचाहा इस्तेमाल न कर पाने से वे बेहद असंतुष्ट भी थे। विधायिका और कार्यपालिका नामना कक्षा के छात्र मास्साब की बेंत से बेखौफ उनके हर आदेश का ‘अमल’ निकालकर प्रयोग कर रहे थे। सो मुछों पर ताव देकर मास्साब ने छात्रों से ‘सीएम’ वंश की असंतुष्टि पर निबन्ध तैयार करने को कहा। फरमान जारी होते ही कक्षा में सन्नाटा सा पसर गया। क्योंकि वे छात्र भी एक सीएम (कामनमैन) वर्ग से जो जुड़े थे। सभी छात्र निबन्ध पत्र की कापी तैयार करने के लिए मुंडों को जोड़कर बौद्धिक चिंतन में मशरूफ हो गये। निश्चित ही छात्रों ने भी अपनी ज्ञान ग्रन्थियों को खोलकर काफी कुछ लिखा। इस काफी कुछ से सार-सार के संपादित अंश सैंदिष्ट हैं।
‘सीएम’ वंश की धराओं का भूगोल समाज सापेक्ष संस्कृति में दो पंथों में विभक्त है। एक निगुण धारा। जोकि ‘कामनमैन’ के रूप में यथास्थिति वाद पर किंकर्तव्यविमूढ़ है। निगुण इसलिए, क्योंकि ‘सीएम’ इनके लिए कुछ भी अच्छा कर दे ये उसका गुण नहीं मानते हैं। तो दूसरा सगुण मार्गीय ‘चीफ मिनिस्टर’ पंथ। जोकि हाईकमान की नित्य पाद् पूजा के निहितार्थ को जानता है। वह अपनी मूल बिरादर वंश की अपेक्षा हाईकमान को ही तरजीह देता है। आखिर कुर्सी के नीचे पद का गलीचा हाईकमान का ही है।
भेद-विभेद के बावजूद दोनों पंथ एक दूसरे के पूरक भी हैं और यदाकदा विरोधी भी। एक वोट देता है, दूसरा वोट मांगने के साथ ही छीनता भी है। एक उत्तरोत्तर विकास की अभिलाषा में बार-बार ठगा जाता है। दूसरा ‘ठग’ कला में उत्तरोत्तर पारंगतता हासिल करता है। नतीजा कि ‘माया महा ठगनी....’ की अर्थवत्ता के बाद भी एक महीन रेखा में दोनों आपस में बंधे रहते हैं। इस रेखा का प्रतिकाकार कभी गाढ़ा हो उठता है और कभी फासलों में अनपेक्षित दूरी भी बना डालता है। निगुण पंथी जहां सतत् विकास के दावों की हकीकत जानने के बाद भी दलीय निष्ठाओं के चलते संतुष्ट होने का प्रयास करता है। तो सगुण मार्गी विकास के लिए ‘बांक’ भर देने से संतुष्ट नहीं होता। बल्कि बांक देने की परंपरा पर अविश्वास भी जाहिर करता है। यही वक्त होता है। जब सगुण ‘सीएम’ निज तुष्टि का राजफाश करने की बजाय ‘असंतुष्टि राग’ को ‘तोड़ा’ बनाकर यथासमय ‘बिलम्बित’ ताल की संगत में गाता चला जाता है। और दूसरा सीएम महज इसलिए तुष्ट कि पहला ‘सीएम’ असंतुष्ट तो है। हालांकि आमतौर पर यह रणनीतिकारों की मत सम्मति का भाव नहीं है।
असंतुष्टि को प्रायः गति व प्रगति का कर्ता माना जाता है। जब कुर्सी वाला सीएम राग असंतुष्ट की प्रस्तुति से विभोर हो तो, जन्मना ‘असंतुष्ट’ सीएम (कामनमैन) निश्चित ही अपने असंतुष्टि के शेयरों को ‘दलाल पथ’ में भुनाने की कोशिश करता है। हालांकि वहां भी उनके धड़ाम होने में देर नहीं लगती। सो आखिर में उसे वोटों की बिकवाली का सहारा लेकर अपना अस्तित्व गांठने का इंतजाम हर हाल में करना होता है। लिहाजा दूसर ‘सीएम’ की अपेक्षा कामनमैन के मौजूं असंतोष में विस्मय जैसा कुछ भी उभरकर नहीं आता।
क्लासरूम में जहां सभी छात्र निबन्ध के बंधैं को निपुण जुलाहे की भांति तांत-तांत बुन रहे थे। तो वहीं मास्साब रूटीन चैकिंग में सभी कापियों से सार-सार गह रहे थे। कि, कामन सीएम की संगत के चिरंतन ठौर चाय-काफी हाऊस हुआ करते हैं। जहां वे अपनी दलीय निष्ठाओं के साथ तुर्की बा तुर्की धोबी पछाड़ का दांव आपस में हमेशा खेलते हैं। इस दौरान यदि तर्क-वितर्क की गेंद हाफबॉली हुई तो समझो लगा छक्का और ‘सुदामा’ की गेंद हुई तो गई जमुना में। हालांकि तब भी सचिव ब्रांड रेफरी उनका रन काउंट नहीं करता है। वहीं गेंद यदि बाऊंस हुई तो दूसरा सीएम अक्सर बल्ले के साथ खुद को भी लाइन से हटा लेता है। ऐसे में इन अड्डों पर बौद्धिक जुगाली का माहौल तापमान के सेल्सियस बढ़ा देता है। निष्कर्षतः तेल कितना पिरोया गया, इसमें कामनमैन के सरोकार भले ही झाग बनाने तक ही सीमित रहते हों। मगर ‘संजयों’ को मालूम है कि, कई बार इस तेल का असर ‘वियाग्रा’ से भी मारक होता है। उधर ‘सीएम’ जानते हैं कि, उनका ‘राग असंतुष्ट’ बंदरों को बंटवारे के बाद भी उन्हें संतुष्ट रखेगा। क्योंकि उनका काम भी सिर्फ तुष्ट रखना है। पुष्ट रखना कदापि नहीं। असंतुष्ट रथ के सारथी ‘सीएम’ की दिशा दशा का वर्णन करते हुए छात्रों ने लिखा कि, इस वर्ग का प्राणी राजभोग की विलासिता में तो संतुष्ट रहता है। किंतु, वैभव की कुर्सी के पायों की स्तंभन शक्ति के लिए ‘वियोगी होगा.....’ की शैली में हमेशा असंतुष्टि के विराट दर्शन देता है। ताकि निगुण सीएम अपनी तुष्टि के सपनों को उनकी तुष्टि से ‘मैच’ न कर सके।
निबन्धीकरण के दौरान छात्रों की कापियों से मास्टर जी का टेपीकरण अभियान जारी था। वे छात्रों के ‘सीएम’ ज्ञान से अविभूत भी नजर आ रहे थे। लेकिन वे भी संतुष्टि के अपने भावों को सगुण ‘सीएम’ की तरह चेहरे पर आने से रोके हुए थे। मास्साब निबन्ध का निष्कर्ष जानना चाहते थे। परन्तु, छात्रों ने भी उतावलेपन की बजाय ‘वेट एण्ड वाच’ के लक्षणों को ही अपनी आखिरी पंक्तियों में उद्धृत किया।
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