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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, September 29, 2009

वीरबाला तीलू रोतेली

यह गढ़भूमि तब धन्य हुई थी
जब मां मैना ने वह चंडी जनि थी
संवत १७१८ में जन्मी थी
इसी गढ़देश की वह सिंघनी थी

वीर भाई भगतु - पत्वा ने
बहन नहीं दुर्गा पाई थी
15 की बाल उम्र में खड़ग उठाया
सोचो कैसी वह तरुनाई थी

कैसी वीर मां थी वह जिसने
बेटी को रन में था भेजा
सच में वह क्षत्राणी खून था
और था साहसी कलेजा

यह गढ़देश स्वतंत्र करने का
वीरांगना ने प्राण लिया था
सात साल तक लड़ती रही
तनिक भी न विश्राम किया था

तूफ़ान सा आ रहा था उधर
वीरबाला के कदम उठ रहे थे जिधर
निकली भी न थी म्यान से तलवार
की कतर गए थे चार सर

बह रही थी नदियाँ लहू की
कट रहे थे सर दुश्मनों के
वीरबाला रणचंडी बनी थी
उखड गए थे पग अशव तक के

जय हो जय नागिर्जा नरसिंघ
कह कह कर शत्रु संघार किया था
समूल विनाश करके दुश्मनों का
गढ़ वीरता को जता दिया था

मां दुर्गा ने अवतार लिया था
वीरबाला का देह धारण किया था
दुश्मनों का संघार करके
गढ़वासियों का भय हर लिया था

पर हर गए थे प्राण वीरांगना के
अंत में जय विजय पाकर
धोखे से पीठ पर वार खाया
चीख गूंजी थी नयारतट पर

हाय हमने देवी को खोकर
स्वतंत्रता को पाया था
धन्य वीरबाला सो सो बार तुम्हारा
जो इस देश में जन्म लिया था

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
Regards
Arun Sajwan
+91 9718675509

New Delhi

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