लाख बहाने पास हमारे
सच भूल, झूठ का फैला हर तरफ़ रोग,
जितने रंग न बदलता गिरगिट
उतने रंग बदलते लोग।
नहीं पता कब किसको
किसके आगे रोना-झुकना है,
इस रंग बदलती दुनिया में
कब कितना जीना-मरना है।
नहीं अगर कुछ पास तुम्हारे, तो देखो!
कोई कितना अपना-अपना रह पाता है,
अपनों की भीड़ में तन्हा आदमी
न रो पाता न हँस पाता है।
फेहरिस्त लम्बी है अपनों की
हैं इसका सबको बहुत खूब पता,
पर जब ढूँढ़ो वक्त पर इनको
तो होगा न कहीं अता-पता
होगा न कहीं अता-पता
Copyright@Kavita Rawat, Bhopal
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