मेरे कवि मित्रों होली कू त्यौहार आप्तैं ख़ुशी प्रदान करू. होली का हुडदंग मां पर्चेत नि पड्यां....अपणा पेट कू अंदाज रख्यन.....काचु पाकु भलु नि होन्दु......
" खेलूंगी होली"
आई हूँ ठेट पहाड़ से..
मेरी बाँह पकड़कर बोली,
"जिग्यांसु" कुछ भी हो जाये,
तोहे संग खेलूंगी होली....
मैंने कहा, सबके घर जाना,
कवि मित्र खेलेंगे होली,
देखके तुझको खुश होंगे वे,
बोलना अपनी बोली.......
सोचो मित्रों कौन है वो,
देखोगे कितनी प्यारी,
वो कोई और नहीं है,
पहाड़ की "घुगुती" न्यारी.
बता रही है खूब खिले हैं,
बुरांश और फ्योंली,
देवभूमि ऋतु बसंत में,
लग रही है ब्योली.
(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(9.3.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
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