भूख
जब कोइ मुझ से पूछता है कि,
क्या, तुमने . कभी
नियति को देखा है ?
तो,
न जाने क्यूँ तब
मेरी निगाहें बरबस
मेरी हथेलियों कि रेखाओ पर जाकर टिक जाती है
और
ढ़ुढ़ने लगती है उन रेखाओ के बीच फसे
मेरे मुक्कदर को ...
सुना है रेखाए भाग्य की
प्रतिबिम्ब होती है
जिसमे छुपा होता है हर एक का कल !
कल किसने देखा है
आज जिंदा रहूंगा तो कल देखूंगा ना
अगर बच गया तो,
फिरसे सारे सब्द , नियति ,सयम ,परितार्नाये
रचने लगेगे अपने अपने चकबयूह
मुझे घेरने का !
इससे अछा तो मै
अपनी हथेलियों को बांध करदू
ना बजेगी बांस , ना बजेगी बांसुरी
आज फसर के सो जाता हूँ
कल की कल देखेंगे
नियति से कल निपट लेगे !
पराशर गौड़
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